-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
बिहार के किसी गांव में रहने वाले भैया जी का छोटा भाई दिल्ली में मारा जाता है। किसी ज़माने में भैया की दहशत होती थी। भाई की मौत का बदला लेने के लिए भैया जी उसी पुराने अवतार में आ जाते हैं और फिर न तो पुलिस, न कानून, सिर्फ भैया जी का प्रतिशोध होता है।
इस किस्म की कहानियां अस्सी के दशक में हिन्दी सिनेमा में खूब आया करती थीं जब दो बाहुबली भिड़ा करते थे, धड़ाधड़ लाशें गिरा करती थीं और पुलिस कहीं किसी कोने में दुम दबाए दिखाई देती थी। इस फिल्म ‘भैया जी’ (Bhaiyya Ji) की कहानी उसी दौर में ले जाती है। कोई बात नहीं, घटनाएं तो कभी भी हो सकती हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि ‘भैया जी’ बनाई भी उसी बीते दौर की शैली में गई है जब पर्दे पर मारधाड़ आती थी तो न किरदारों की विशेषताओं पर गौर किया जाता था, न ही घटनाओं की तार्किकता पर।
23 मई, 2023 को दीपक किंगरानी की लिखी, अपूर्व सिंह कार्की के निर्देशन में बनी मनोज वाजपेयी वाली ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ ज़ी-5 पर आई थी। वह फिल्म इस कदर मज़बूत थी कि शायद पहली बार ऐसा हुआ कि किसी फिल्म को ओ.टी.टी. पर रिलीज़ करने के बाद थिएटरों में लाया गया ताकि उसे ज़्यादा दर्शकों तक पहुंचाया जा सके। यह फिल्म ‘भैया जी’ (Bhaiyya Ji) भी इन्हीं लोगों की है जिसके निर्माताओं में एक सुपर्ण वर्मा का नाम हटा है तो शैल ओसवाल और शबाना रज़ा वाजपेयी का जुड़ा है। वस्त्र उद्योग वाले ओसवाल परिवार के बेटे शैल की गायिकी में दिलचस्पी रही है और ये लोग ‘पिंजर’ बना चुके हैं। शबाना रज़ा मनोज की पत्नी हैं, यानी खुद मनोज इस फिल्म के निर्माता कहे जा सकते हैं। ये सारे समीकरण बताते हैं कि असल में दीपक किंगरानी, अपूर्व सिंह कार्की और मनोज की तिकड़ी पर सारा दांव खेला गया है। मगर कितना सफल है यह दांव…?
(रिव्यू-कांटों में राह बनाने को ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’)
फिल्में दो तरह से लिखी जाती हैं। एक तो उन कहानियों पर बनती हैं जो अपनी खुद की ज़मीन में खाद-पानी पा कर कुदरती तौर पर फलती-फूलती हैं और कोई माली उनकी देखभाल कर, काट-छांट कर उन्हें सुंदर, सुघड़ बनाता है। दूसरे किस्म की कहानियों में नाप-तौल कर चीज़ें डाली जाती हैं ताकि पहले से तय किया गया एक लक्ष्य पाया जा सके। फिल्मी भाषा में इन नाप-तौल कर डाली जाने वाली चीज़ों को ‘फॉर्मूले’ कहा जाता है और इसीलिए इस किस्म की फिल्में अक्सर ‘फिल्म’ नहीं ‘प्रोजेक्ट’ के रूप में सामने आती हैं। इस फिल्म ‘भैया जी’ (Bhaiyya Ji) के साथ भी यही हुआ है।
हालांकि ‘भैया जी’ (Bhaiyya Ji) का फर्स्ट हॉफ कसा हुआ है। कहानी को बड़े ही कायदे से फैलाया गया है। छोटे भाई के कत्ल के बाद भैया जी के हिंसा की दुनिया में लौटने के फैसले को जिन दृश्यों से दर्शाया गया है, वे रोमांचित करते हैं। भैया जी के नाम पर जिस तरह से सैंकड़ों लोग इक्ट्ठा हो जाते हैं, वे दृश्य दहलाते हैं और लगता है कि भैया जी सचमुच तबाही मचा देंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। दुश्मन से अकेले भिड़ने की ज़िद भैया जी को ही नहीं, इस फिल्म को भी कमज़ोर करती है और एक बार फिर यह बात सही साबित होती है कि कहानी को कायदे से फैलाने से ज़्यादा मुश्किल उसे कायदे से समेटना होता है। यही कारण है कि अपने सैकिंड हॉफ में यह एक औसत किस्म की फिल्म बन कर रह गई है जो उन उम्मीदों को तोड़ती है जिसे दीपक, अपूर्व व मनोज की तिकड़ी ने इंटरवल से पहले खड़ा किया था। इस फिल्म को बनाने वालों को भैया जी को सिर्फ एक बंदा नहीं, एक ब्रांड बनाना चाहिए था-दहशत का प्रतीक, लेकिन वे चूके हैं और बुरी तरह से चूके हैं।
ऐसी फिल्मों में तार्किकता की बातें बेमानी हो सकती हैं लेकिन लिखने-बनाने वाले सब कुछ अपनी मनमर्ज़ी से तो नहीं कर सकते न। सैंकड़ों लोग भैया जी का साथ देने को तैयार हैं, लेकिन एक बार सीन से गायब होने के बाद उनमें से कोई एक-आध ही नज़र आया है। जब गिनती के चार आदमी भैया जी की मदद करने में लगे होते हैं तो वे सैंकड़ों लोग बहुत याद आते हैं। भैया जी की मंगेतर निशानेबाज़ी की चैंपियन रही है, लेकिन यहां वह मार्शल आर्ट्स और जिमनास्ट भी बखूबी कर रही है। भैया जी के चंगू-मंगू किस्म के दो साथी अकेले मार खा रहे भैया जी को बचाने सिर्फ इसलिए नहीं जाते क्योंकि भैया जी ने उन्हें ‘मना किया’ था। बाहुबलियों के बीच में राजनीतिक पार्टी का एंगल गैरज़रूरी भी लगा और बेहद कमज़ोर भी। विदेश भाग रहे खलनायक पर हमले वाली कहानी का भी सिर-पैर गायब दिखा। जब कहानियों को जबरन ठोक-पीट कर मनचाहा आकार देने की कसरत की जाती है तो अक्सर उनकी शेप बिगड़ जाया करती है, ‘भैया जी’ (Bhaiyya Ji) इसकी मिसाल है। निर्देशक ने कुछ सीन तो बहुत बढ़िया बनाए लेकिन कई जगह उनकी कल्पनाशीलता मात खा गई और वे सीन हल्के व बनावटी बन कर रह गए।
वैसे, मारधाड़ पसंद करने वाले दर्शक इसे देख सकते हैं। मनोज वाजपेयी को पसंद करने वाले दर्शक भी इसे देख सकते हैं। मनोज के अभिनय में दम दिखा भी है। लेकिन मारधाड़ वाले सीन में उनसे कुछ ज़्यादा ही उछल-कूद करवाई गई। इसीलिए उनका जितना आतंक बताया गया, उतना दिखाई नहीं दिया। कभी ‘मुक्काबाज़’ से उम्मीदें जगा गईं ज़ोया हुसैन को देख कर तरस ज़्यादा आया। सुविंदर विक्की जैसे बेहद प्रतिभाशाली कलाकार को इस फिल्म ने साधारण खलनायक बना दिया। जतिन गोस्वामी ठीक लगे। खलनायकों को हरियाणवी चोला पहनाना ही था तो उनकी बोली, परिवेश पर और मेहनत करनी चाहिए थी। विपिन शर्मा जंचे। बाकी लोग साधारण रहे। गीत-संगीत अच्छा रहा लेकिन इसका भोजपुरी मिज़ाज इसकी पहुंच को सीमित करता है।
1991 में आई मुकुल आनंद की फिल्म ‘हम’ में बड़ा भाई अमिताभ बच्चन अपने सौतेले भाइयों के लिए वापस गुंडा टाइगर बन कर मारधाड़ करता है। भैया जी को भी बाघ के कलेजे वाला बताया गया है। वह भी अपने भाई के लिए वापस मारधाड़ की दुनिया में लौटते हैं। आप कह सकते हैं कि इस रिव्यू में स्पॉइलर बहुत सारे हैं। मैं कहूंगा कि ‘भैया जी’ (Bhaiyya Ji) का ट्रेलर इससे ज़्यादा स्पॉइलर परोसता है। सच तो यह है कि इस फिल्म का ट्रेलर भी ठीक से नहीं बनाया गया है। उसमें कुछ सस्पैंस रख कर सीधे फिल्म में उसे खोला जाता तो सही रहता।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-24 May, 2024 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Bhaiiyaa Ji….Kalaakar k name k hisaab se ‘iska title’ hee kaafi hai.. Rahi baat isko dekhne ki to dekha bhi lekin time waste to bilkul nahn hai… Good to watch