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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-प्लस्तर की कमी है ‘बस्तर’ में

Deepak Dua by Deepak Dua
2024/03/16
in फिल्म/वेब रिव्यू
3
रिव्यू-प्लस्तर की कमी है ‘बस्तर’ में
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-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)

6 अप्रैल, 2010-छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने सी.आर.पी.एफ. के एक काफिले पर हमला किया जिसमें 76 जवान शहीद हुए। इसके तीन दिन बाद दिल्ली की एक यूनिवर्सिटी के कुछ छात्रों ने इन जवानों के मारे जाने का ‘जश्न’ मनाया था।

मुमकिन है ये वाकये आपको याद न हों। मुमकिन है कि बस्तर के किसी स्कूल में राष्ट्रीय ध्वज फहराने पर नक्सलियों द्वारा गांव वालों की हत्या की कोई खबर भी आपको याद न हो। यह भी मुमकिन है कि आप इस बात से नावाकिफ हों कि 1967 के आसपास शुरू हुए हिंसक नक्सली आंदोलन में अब तक देश के हजारों जवान मारे जा चुके हैं। यह फिल्म आपको वही सब बातें याद दिलाने आई है।

नक्सली हिंसा हमारे देश के दामन पर लगा एक ऐसा लाल धब्बा है जिसे यह मुल्क लगभग साढ़े छह दशक से झेल रहा है। लेकिन एक आम नागरिक को आज भी पूरी तरह से यह नहीं पता कि ये लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं? ये लोग आखिर चाहते क्या हैं? और क्या उनकी इस चाहत का रास्ता हिंसा की पगडंडी से होकर ही जाता है? और इससे भी बड़ी बात यह कि कैसे और क्यां इस देश के कई नेता, लेखक, अध्यापक, बुद्धिजीवी, वकील आदि इन लोगों के पक्ष में न सिर्फ जा खड़े होते हैं बल्कि इनके किए को जायज़ ठहराने के लिए जी-जान लगा देते हैं?

नक्सली समस्या पर अपनी फिल्मों में कुछ खास, कुछ गहरा अभी तक नहीं आ पाया है। कभी कुछ आया भी तो उसमें एकतरफा झुकाव देखा गया जो इन लोगों की हरकतों के पक्ष में ही था। आमतौर पर यही तस्वीर परोसी गई कि ये लोग आदिवासी हैं जो अपने ‘जल, जंगल व ज़मीन’ को पूंजीपतियों से बचाने के लिए हथियार उठाए हुए हैं। लेकिन यह पूरा सच नहीं है और इसीलिए आज भी इस देश का एक आम नागरिक इस समस्या को समझ पाने में असमर्थ है। यह फिल्म ‘बस्तर-द नक्सल स्टोरी’ कुछ परतें तो खोलती है लेकिन दिक्कत यहां भी यही रही कि यह हमारी जानकारी या समझ में कोई बहुत बड़ा इजाफा नहीं कर पाती।

फिल्म की कहानी बताती है कि बस्तर के किसी गांव में तिरंगा फहराने पर रत्ना के पति को नक्सली बेदर्दी से मार देते हैं और उसके बेटे को अपने साथ ले जाते हैं। रत्ना ‘सलवा जुडूम’ में शामिल हो जाती है-यानी सरकार द्वारा पोषित वे आदिवासी लोग जिन्हें ‘स्पेशल पुलिस अफसर’ का दर्जा और हथियार देकर नक्सलियों से लड़ने की ट्रेनिंग दी गई। आई.पी.एस. नीरजा माधवन अपने दल-बल के साथ नक्सलियों के खात्मे पर आमादा है। उधर दिल्ली में कुछ बुद्धिजीवियों ने ‘सलवा जुडूम’ पर प्रतिबंध लगाने के लिए कोर्ट में केस किया हुआ है।

हालांकि यह फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ वाले सुदीप्तो सेन और विपुल अमृतलाल शाह की है लेकिन इस बार ये लोग एक सिलसिलेवार कहानी गढ़ने से चूके हैं। फिल्म की पटकथा भी दर्शकों को बांध पाने में नाकाम रही है क्योंकि यह बेतरतीब है। जिन घटनाओं को आपस में पिरोया गया है, वे सच्ची और नृशंस ज़रूर हैं लेकिन उनमें तारतम्यता नहीं है जिसके चलते गहरा असर नहीं हो पाता। ऐसा लगता है कि इस फिल्म को जल्दबाज़ी में बुना और बनाया गया। थोड़ा और गहरा रिसर्च, स्क्रिप्ट पर थोड़ा और सलीकेदार काम इस फिल्म को पैना और सटीक बना सकता था। संवाद कहीं-कहीं असरदार हैं। कैमरा भी कहीं-कहीं ही प्रभावित करता है।

अदा शर्मा अच्छी एक्टिंग करने के बावजूद ‘फिल्मी’ लगती हैं। किशोर कदम, पूर्णेदु भट्टाचार्य, गोपाल के. सिंह, यशपाल शर्मा, नमन जैन, शिल्पा शुक्ला, रायमा सेन, विजय कृष्णा आदि अपने-अपने काम को सही से कर जाते हैं। लेकिन अभिनय के मामले में यह फिल्म इंदिरा तिवारी की है। रत्ना के किरदार हो वह जीवंत करती हैं।

फिल्म 2010 की कहानी दिखाती है। यह नक्सलियों के गठजोड़ की बात भी करती है। लेकिन यह न तो समस्या की जड़ में जाती है और न ही उसके समाधान पर। यही कारण है कि यह दर्शक को खुद से जोड़ नहीं पाती है। यह सही है कि ऐसे विषयों पर बात होनी चाहिए। लेकिन जब वह बात आम आदमी के पल्ले ही न पड़े तो फिर क्या फायदा। थोड़ा और पलस्तर किया जाता तो इस फिल्म की कमियां छुप सकती थीं।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-15 March, 2024 in theaters

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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Comments 3

  1. Anand kumar Jagdish says:
    1 year ago

    आपके खयाल से नक्सली समस्या के स्थाई समाधान के क्या मायने हो सकते हैं ?

    Reply
    • CineYatra says:
      1 year ago

      यह ख्याल हमारे राजनेताओं, अधिकारियों को रखना है, एक फिल्म-क्रिटिक को नहीं…

      Reply
  2. NAFEESH AHMED says:
    1 year ago

    कई बार लगता है कि आपका रिव्यु पढ़ लिया तो मानो कि पूरी फ़िल्म ही देख ली…

    फ़िल्म की हक़ीक़त ये है कि ये सर्फ़ कलाकारों क़े दम पर चलने वाली फ़िल्म हैँ ना कि स्टोरी क़े बलबूते पर चलने वाली फ़िल्म…

    स्टार ** ही काफी हैँ…. क्यूंकि डेढ़ स्टार का ऑप्शन नहीं है…

    Reply

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