-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
लखनऊ के रईस परिवार का इकलौता बेटा रणविजय यानी बबलू 35 की उम्र में भी कुंवारा है क्योंकि उसे परफैक्ट लड़की नहीं मिल रही है। एक लड़की से उसे प्यार होता है तो शादी से पहले कुछ पंगा हो जाता है। दूसरी लड़की से शादी के बाद पंगा हो जाता है। अब बेचारा बबलू निकल पड़ा है अपने पंगे सुलझाने कि तभी उसे पहली वाली लड़की मिल जाती है। लेकिन वह तो अब दूसरी वाली को चाहता है। दूसरी वाली से बात बन ही रही होती है कि फिर एक पंगा हो जाता है। क्या बबलू इन पंगों को सुलझा पाएगा? क्या वह अपना घर बसा पाएगा? क्या वह अपने माथे पर चिपका ‘बैचलर’ का लेबल हटा पाएगा?
शादी के इर्दगिर्द घूमती ऐसी कहानियां दर्शक अक्सर पसंद कर लेते हैं क्योंकि इन कहानियों में रोमांस, कॉमेडी, चमक-दमक, नाच-गाना, परिवार, इमोशंस जैसे कई सारे मसाले एक साथ परोसे जा सकते हैं। लेकिन सोचिए अगर इन्हीं सारे मसालों का संतुलन बिगाड़ दिया जाए और परोसने वाले को ही समझ न आए कि थाली में कौन-सी चीज़ कितनी मात्रा में परोसनी है तो…? बस यही अपराध इस फिल्म में भी हुआ है।
सबसे पहले तो इस फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने वालों को स्क्रिप्ट-राइटिंग का एक क्रैश कोर्स टाइप कुछ कर लेना चाहिए। मतलब आप कुछ भी… कुछ भी लिखोगे और हम उसे हज़म कर लेंगे? आप जब चाहे कहानी को कहीं भी मोड़ दोगे, संवादों को अश्लील बना दोगे, किरदारों की वाट लगा दोगे और हमसे उम्मीद रखोगे कि हम चुपचाप सब सहते चले जाएं? आपकी कहानी का हीरो पूरी फिल्म में एक भी ऐसी हरकत नहीं करता कि उसे ‘हीरो’ कहा जाए। इस किस्म के लूज़र का तो कुंवारा रहना ही अच्छा। आपकी पहली हीरोइन जिस कारण से हीरो को छोड़ती है, वह कारण तो बाद में भी था, तब वह क्यों लौटी? आपकी दूसरी हीरोइन ने ऐलान-ए-मोहब्बत किया और हीरो मुंह में दही जमाए कुछ कह ही नहीं पाया? और फिल्म के अंत में शादी वाला आइडिया किस का था? जिसका भी था उसने इंटरवल से पहले वाली शादी नहीं देखी थी क्या? क्या-क्या गिनवाएं…?
और डायरेक्टर अग्निदेव चटर्जी साहब, चलिए माना कि आपके हाथ में एक ज़रूरत से ज़्यादा लंबी और कमज़ोर स्क्रिप्ट आ गई थी लेकिन भाई, आप ने भी तो अपनी तरफ से कुछ नहीं किया। कुछ जोड़ते, कुछ घटाते, कुछ उम्दा सीन बनाते, कुछ अच्छे गाने ही ले लेते। लेकिन नहीं…! तो हुजूर, बतौर कैप्टन यह फिल्म आपकी नाकामी का सबूत है। लखनऊ की कहानी में थोड़ा लखनऊ ही दिखा देते भाई। गाने एक-दो तो अच्छे हैं बाकी के बेकार। और बेवक्त आकर कहानी की रही-सही रौनक भी बिगाड़ देते हैं। फिल्म काफी लंबी है और इसलिए ज़्यादा अखरती है।
शरमन जोशी अपने किरदार में फिट रहे हैं। पूजा चोपड़ा और तेजश्री प्रधान भी सही रहीं। अब कहने को तो इसमें राजेश शर्मा, मनोज जोशी, असरानी, राजू खेर, सुमित गुलाटी, आकाश दाभाडे जैसे कई जाने-पहचाने कलाकार हैं लेकिन जब लिखने वाले ही इनके किरदारों को सशक्त नहीं बनाएंगे तो ये लोग भी भला क्या कर पाएंगे।
गनीमत यह समझिए कि फिल्म पकाऊ नहीं है और अगर कोई कामधाम न हो, बिल्कुल ही निठल्ले बैठे हों तो इसे देख सकते हैं। वरना इस फिल्म से पंगा न ही लें तो बेहतर होगा। फिलहाल यह थिएटरों में रिलीज़ हुई है, बाद में किसी ओ.टी.टी. पर भी आएगी ही।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-22 October, 2021
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
बढ़िया समीक्षा
धन्यवाद…