-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
जासूसी फिल्मों और जासूस नायकों की अपने यहां कोई लंबी या समृद्ध परंपरा नहीं रही है। इसकी वजह शायद यह है कि इस तरह की फिल्में तार्किक कहानी, कसी हुई पटकथा, रफ्तार और स्टाइल जैसी वे तमाम चीज़ें मांगती हैं जिन्हें एक साथ जुटा पाना किसी फिल्मकार के लिए आसान नहीं होता। इस फिल्म के निर्देशक श्रीराम राघवन का ट्रैक रिकॉर्ड देखें तो वहां ‘एक हसीना थी’ और ‘जॉनी गद्दार’ जैसी फिल्में दिखती हैं और यह उम्मीद भी बंधती है कि इस फिल्म में वह निराश नहीं करेंगे। लेकिन ऐसा पूरी तरह से नहीं हो पाया है क्योंकि उनकी यह फिल्म कभी जेम्स बॉण्ड का देसी संस्करण हो जाती है तो कभी एकदम बॉलीवुड मसाला फिल्म, जिसमें तर्क और बुद्धि किनारे पर रख दिए जाते हैं।
एक भारतीय खुफिया एजेंट राजन (रवि किशन) रूस में मारे जाने से पहले बस ‘242’ ही कह पाता है। एजेंट विनोद (सैफ अली खान) को भेजा जाता है ताकि वह यह पता करे कि राजन क्यों मारा गया और यह 242 क्या बला है। अपने इस सफर में विनोद को ढेरों लोग मिलते हैं और कई देशों से होता हुआ वह आखिर दिल्ली तक पहुंचता है जहां एक एटम बम फोड़ा जाना है। कैसे वह तमाम मुश्किलों को पार करता है और साज़िशों का भंडाफोड़ करता है, यही इसमें दिखाया गया है।
फिल्म में एक दिलचस्प प्लॉट है और बेशक उस पर एक मुश्किल स्क्रिप्ट भी बुनी गई है। साथ ही इस तरह की फिल्म के लिए ज़रूरी रफ्तार और स्टाइल भी परोसा गया है। बल्कि कहीं-कहीं तो फिल्म की स्पीड इतनी ज़्यादा हो जाती है कि चीज़ें ऊपर से निकलने लगती हैं। यही हाल संवादों का भी है जो खट से आते हैं और लाउड म्यूज़िक तले दब कर चट से निकल भी जाते हैं। रही तर्क की बात, तो हिन्दी फिल्मों में ‘थोड़ी-बहुत’ सिनेमाई छूट तो चलती ही है।
सैफ अली खान अपने किरदार में जमे हैं। उनकी हर अदा भाती है। उनके चरित्र को गढ़ा भी सलीके से गया है जो कूल रहता है। करीना कपूर का रोल छोटा मगर असरदार रहा और उन्होंने उसे कायदे से निभाया भी। बाकी तमाम कलाकारों ने भी उम्दा काम किया। फिल्म की एडिटिंग कहीं-कहीं निर्देशक के मोह का शिकार नज़र आती है। फिल्म को दिया गया लुक जंचता है। अफगानिस्तान के पहले ही सीन से फिल्म अपने मूड का खुलासा कर देती है। सिनेमॉटोग्राफी शानदार है और फिल्म के मिज़ाज को पकड़ती है। म्यूज़िक की गुंजाइश नहीं थी फिर भी उसे डाला गया और वह ठीक-ठाक है। एक्शन सीक्वेंस प्रभावी हैं।
क्लाईमैक्स में मणिशंकर की फिल्म ‘16 दिसंबर’ की याद दिलाती यह फिल्म अपने अंडरकरंट में यह संदेश भी देती है कि दुनिया भर में आतंकवाद या युद्ध के खतरे दरअसल उन कारोबारियों की वजह से मंडरा रहे हैं जो लोगों को आपस में लड़वा कर अपनी जेबें भरना चाहते हैं। फिल्म यह भी कहती है कि भारत-पाकिस्तान अगर आपस में मिल कर चलें तो ऐसे कई खतरों से पार पा सकते हैं। कुल मिला कर तेज़ रफ्तार के साथ-साथ हिचकोले देती यह फिल्म कोई महान कृति भले ही न हो लेकिन एक सराहनीय प्रयास के साथ-साथ एक बार देखे जाने की योग्यता तो यह रखती ही है।
अपनी रेटिंग-तीन स्टार
(नोट-इस फिल्म की रिलीज़ के समय मेरा यह रिव्यू किसी अन्य पोर्टल पर छपा था)
Release Date-23 March, 2012
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)