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Home फिल्म/वेब रिव्यू

ओल्ड रिव्यू-मुरब्बा भी नहीं है ‘जिंदगी तेरे नाम’ में

Deepak Dua by Deepak Dua
2012/03/16
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
ओल्ड रिव्यू-मुरब्बा भी नहीं है ‘जिंदगी तेरे नाम’ में
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-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

बूढ़े हो चुके सिंह साहब (मिथुन चक्रवर्ती) एक हॉस्पिटल में अपनी याद्दाश्त खो चुकी मैडम (रंजीता) को किसी डायरी में से पढ़ कर एक प्रेम-कहानी सुना रहे हैं। उनका दावा है कि यह कहानी बहुत अच्छी है और सुनते-सुनते मैडम भी यही कहती हैं कि कहानी सचमुच अच्छी है। पर अगर ऐसा है तो यही बात सामने बैठे दर्शकों को महसूस क्यों नहीं होती है? इस कहानी के लिए उनके मन में कोई उत्सुकता क्यों पैदा नहीं होती है? क्यों वे बार-बार पहलू बदलते हुए उस घड़ी को कोसते हैं जब उन्होंने इस फिल्म को देखने का फैसला किया था और बार-बार घड़ी देखते हैं कि कब इंटरवल हो और वे पॉपकॉर्न खाएं।

यह सही है कि इधर हमारे यहां ऐसी फिल्में बड़ी तादाद में बनने लगी हैं जिन्हें देखने जाने वालों का मकसद फिल्म से ज़्यादा पॉपकॉर्न को एन्जॉय करना होता है। लेकिन उन फिल्मों में फिर भी कुछ मसाला होता है, कुछ रस होता है, थोड़ा और अक्सर फिजूल ही सही, मनोरंजन भी होता है। मगर इस फिल्म को देख रहे दर्शक के हाथ इनमें से कुछ भी नहीं लगता तो कसूर किस का है-इसे लिखने वालों का या इसे बनाने वालों का?

फिल्म में कहानी के नाम पर मुरब्बा भी नहीं है। वही सदियों पुरानी अमीर लड़की और गरीब लड़के की प्रेमकथा जिसमें लड़की के अमीर मां-बाप रोड़ा बन कर आ खड़े होते हैं। खैर, इस कहानी को भी सही तरह से परोसा जा सकता है। लेकिन उसके लिए पटकथा में दम चाहिए, पेंच चाहिएं, पैनापन चाहिए और यहां ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता है। स्क्रिप्ट में न तो कोई ऊंचाइयां हैं और न ही गहराइयां। सीधी-सपाट, बेअसर चलती जा रही है यह। आशु त्रिखा कोई बहुत कमाल के निर्देशक नहीं माने जाते हैं फिर भी वह ठीक-ठाक सा काम तो कर ही लेते हैं। उनकी ‘बाबर’ को तो सराहा भी गया था। लेकिन इस फिल्म में उनका कहीं कोई असर नज़र नहीं आता। दर्शक बेचारा अब कुछ बढ़िया होगा, अब कोई बात बनेगी जैसी उम्मीदें ही लगाता रह जाता है और फिल्म खत्म भी हो जाती है। चलिए इसमें कुछ कॉमेडी ही डाल देते आशु। नहीं तो आंसू बहा सकने वाले इमोशंस। या फिर एक्टर ही थोड़े ठीक-ठाक ले लेते तब भी काम चल जाता। लेकिन नहीं, इस फिल्म में इनमें से कुछ भी नहीं है।

मिथुन दा और रंजीता के चेहरों पर पूरी फिल्म में एक जैसे ही भाव रहे हैं। नए कलाकार असीम अली खान, प्रियंका मेहता और आशीष शर्मा में कॉन्फिडेंस तो दिखता है लेकिन एक्टिंग का माद्दा नहीं। बाकी कलाकारों में दिलीप ताहिल, यतिन कार्येकर, हिमानी शिवपुरी, अमित मिस्त्री आदि को तो ढंग के रोल ही नहीं मिले। रही गीत-संगीत की बात, तो साजिद-वाजिद ने मेहनत तो काफी की और दिया मिर्जा का एक आइटम नंबर तक डाला गया। लेकिन इन सबमें भी एक सूखापन और एक बासीपन-सा साफ दिखाई देता है। दरअसल बासीपन तो इस पूरी फिल्म में ही है। लंबे अर्से से बन कर पड़ी इस फिल्म को बड़ा पर्दा नसीब हो गया यही काफी है। इस हफ्ते कोई पुरानी अच्छी फिल्म पैंडिंग पड़ी हो तो उसे ही देख लीजिए।

अपनी रेटिंग-एक स्टार

(नोट-इस फिल्म की रिलीज़ के समय मेरा यह रिव्यू हिन्दी समाचार-पत्र ‘हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित हुआ था।)

Release Date-16 March, 2012 in theatres

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: ashish sharmaashu trikhadia mirzadilip tahilhimani shivpurimithun chakrabortypriyanka mehtaranjeeta kauryatin karyekarzindagi tere naamzindagi tere naam review
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