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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-यकीन तोड़ती ‘ट्यूबलाइट’

Deepak Dua by Deepak Dua
2017/06/23
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
रिव्यू-यकीन तोड़ती ‘ट्यूबलाइट’
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–दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

ओ हो, तो इस फिल्म के डायरेक्टर कबीर खान हैं। ‘काबुल एक्सप्रैस’ जैसी प्रशंसनीय और‘न्यूयाॅर्क’, ‘एक था टाइगर’, ‘फैंटम’, ‘बजरंगी भाईजान’ जैसी सफल फिल्में दे चुका डायरेक्टर जिस स्टार पर हाथ रख दे वह इनके साथ काम करने को आंख बंद करके राजी हो जाएगा। फिर सलमान खान तो यहां सिर्फ हीरो ही नहीं, बतौर प्रोड्यूसर भी मौजूद हैं। और जब ‘भाई’ की फिल्म हो तो फिर भला काहे का गम। उनके ‘भक्त’ आंख-दिमाग बंद करके थिएटरों को चल ही देंगे। ऊपर से ईद जैसा मौका। करोड़ों की भीड़ तो यूं ही चली आएगी। तो बस, बना डालते हैं एक फिल्म। कहानी…? लो जी, इतना मजमा इक्ट्ठा कर लिया, अब कहानी भी डालें क्या इसमें…?

जी हां, इस फिल्म को देखने के बाद अगर कोई आपसे शाॅर्ट में इसकी कहानी पूछे तो आप सिर खुजाते-खुजाते गंजे भी हो सकते हैं। हां, एक मैसेज जरूर है इस फिल्म में कि, यकीन हो तो कुछ भी मुमकिन है। लेकिन फिल्म की कहानी इस मैसेज को सपोर्ट नहीं करती है क्योंकि इस कहानी में ऐसा कुछ नामुमकिन है ही नहीं जिसे इसका हीरो अपने यकीन के दम पर मुमकिन करता हो।

हीरो यानी सलमान खान यानी ट्यूबलाइट। दिल का साफ, दिमाग का हाॅफ। यह कुमाऊं के एक पहाड़ी कस्बे में रहता है जो दिखता है गांव जैसा और जहां एक जिला अस्पताल भी है… हा… हा… हा…! अब इस किस्म का मंदबुद्धि बालक आमतौर पर सब का प्यारा, आंखों का तारा होता है। लेकिन यहां जिसे देखो वही इसका मजाक बनाने पर तुला हुआ है। और इन अक्ल के अंधों को इस हीरो का हीरोइज्म सिर्फ तब-तब नजर आता है जब इसने असल में कुछ किया ही नहीं होता। यह बंदा पूरे दिन यहां से वहां, वहां से यहां भटकता रहता है और किताबों में लिखी अच्छी-अच्छी बातों को दोहराता और उन पर अमल करता फिरता है। ठीक इसी तरह से इस फिल्म की कहानी के सिरे भी यहां से वहां, वहां से यहां भटकते रहते हैं। कहने को इन सिरों में बहुत कुछ है, वह सुनाई देता है, कभी-कभी दिखाई भी दे जाता है, मगर अफसोस, महसूस नहीं होता।

एकदम पैदल स्क्रिप्ट पर बनी यह फिल्म ढेरों गैरजरूरी सीन अपने अंदर ठूंसे हुए है। 136 मिनट में से 25 मिनट के गाने निकाल देने के बाद बचे हुए दो घंटे से भी कम का वक्त अगर सलमान की फिल्म के लिए भारी लगने लगे तो यकीनन कमी फिल्म में है, भाई के चाहने वालों की चाहत में नहीं। फिल्म में काॅमेडी है, लेकिन वह एक-दो दफा हल्का-सा हंसा कर गायब हो जाती है। भारत-चीन युद्ध है लेकिन फिल्म न तो युद्ध की विभीषिका को उकेर पाती है, न जंग की व्यर्थता को साबित कर पाती है, न देशभक्ति का जज्बा जगा पाती है और न ही शहीदों के प्रति किसी किस्म का दर्द पैदा कर पाती है। हालत यह है कि सामने पर्दे पर शहीदों को श्रद्धांजलि दी जा रही है, गम का माहौल है, कैमरे के सामने मौजूद हर शख्स की आंखों में आंसू हैं लेकिन इधर थिएटर में वह सीन टच ही नहीं कर पा रहा है। फिल्म में एक्शन, थ्रिल, छल-कपट, मार-कुटाई भी नहीं है। रोमांस तो खैर हो ही नहीं सकता इसमें, क्योंकि फिल्म में कोई हीरोइन है ही नहीं। भारत-चीन का युद्ध है लेकिन ‘हिन्दी चीनी भाई भाई’ की आड़ में भारत की पीठ में छुरा भोंकने वाले चीन पर एक कमेंट तक नहीं है। जाहिर है, निर्माताओं की नजर इस फिल्म को चीन में रिलीज करने पर भी टिकी हुई होगी।

इस किस्म की फिल्में जिस किस्म का रिसर्च मांगती हैं, उसका हजारवां हिस्सा भी इसके लिए नहीं किया गया होगा वरना इतना तो इसे बनाने वालों को पता ही होता कि भारत-चीन युद्ध सिर्फ 32 दिन चला था और यहां ऐसा लगता है जैसे महीनों बीत गए हों। 20 अक्टूबर, 1962 को शुरू हुए इस युद्ध के लिए इस कस्बे के नौजवानों की सेना में भर्ती फिल्म में सितंबर, 1962 में दिखाई गई है। वाह रे लेखकों, जय हो तुम्हारी। और हां, गांधी जी की जिस शिक्षा ‘आंख के बदले आंख…’ की बात फिल्म में कई बार की गई है उसका गांधी दर्शन में कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता। रिसर्च कायदे से की हो तब न। एक उम्दा विषय को यूं बर्बाद होते देखना दुखद है। और वह भी उन कबीर खान के हाथों जिनकी ‘काबुल एक्सप्रैस’ ने जबर्दस्त चोट की थी।

सलमान खान प्यारे-मासूम किस्म के इंसान कई बार बन चुके हैं। लेकिन इस बार न वह प्यारे लगते हैं, न मासूम। हां, लल्लू जरूर लगते हैं। सोहैल खान फिर भी ठीक लगे लेकिन इन दोनों की कद-काठी इन्हें पर्दे पर 35-40 साल का दिखाती है और यह उम्र इनके किरदारों के साथ मेल नहीं खा पाती है। मौहम्मद जीशान अय्यूब जोशीले ढंग से खुद को मिले किरदार को निभाते हैं। स्वर्गीय ओम पुरी का काम असरदार दिखता है लेकिन यशपाल शर्मा, बृजेंद्र काला जैसे मंझे हुए कलाकारों को फिल्म ज़ाया करती है। साउथ की ढेरों फिल्में कर चुकीं ईशा तलवार ने माया के रोल से हिन्दी सिनेमा में अपनी शुरूआत क्यों की? लगता है वह भी ‘भाई गैंग’ पर यकीन करके फंस गईं। बाल-कलाकार मातिन रे प्यारे लगते हैं और चीनी अदाकारा झू झू भी मगर इनके किरदार और उन किरदारों की पृष्ठभूमि जबरन ठूंसी गई लगती है। मेहमान के तौर पर शाहरुख खान बुझे-बुझे और बेगाने से लगते हैं। गाने सुनने-देखने में अच्छे हैं। लोकेशन आंखों को सुहाती हैं अलबत्ता सारा सैटअप काफी बनावटी-सा दिखता है।

फिल्म में यकीन शब्द ढेरों बार बोला गया है। फिल्म किसी भी तरह से यह साबित करने में लगी रहती है कि यकीन हो तो कुछ भी असंभव नहीं। लेकिन कबीर और सलमान पर यकीन करके जो करोड़ों लोग इस फिल्म को देखने और इनकी जेबें भरने के लिए ईद के मौके पर आने वाले हैं उनके यकीन को यह फिल्म बुरी तरह से तोड़ती है। सही वक्त पर आई यह फिल्म बाॅक्स-ऑफिस को भले ही जीत ले, दिलों को जीत पाने में यह नाकाम रहेगी।

अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार

Release Date-23 June, 2017

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: brijendra kalakabeer khankabir khanmatin reyom puriSalman KhanSohail Khantubelight reviewzeeshan ayyubzhu zhuट्यूबलाइट
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