-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘ट्रैफिक’ जैसी फिल्म देखने के बाद मन होता है सिनेमा की चौखट को झुक कर छू लिया जाए। उस पर्दे को नमन किया जाए जिस पर ऐसी फिल्म दिखी। क्या सिखाएंगे मंदिर-गुरुद्वारे जो यह फिल्म सिखा जाती है। इंसान बने रहने के गुर, अपने अंदर की इंसानियत को बनाए-बचाए रखने की सीखें।
2011 में गोआ में हुए भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के ‘इंडियन पैनोरमा खंड’ का हिस्सा रही मलयालम फिल्म ‘ट्रैफिक’ को देखने के बाद लगा था कि यह फिल्म हिन्दी में भी बननी चाहिए। उसी शाम इसके डायरेक्टर राजेश पिल्लई से बात हुई तो उन्होंने बताया था कि हिन्दी में वह इसे खुद निर्देशित करेंगे। बाद में यह फिल्म तमिल और कन्नड़ में भी आई मगर किसी और के निर्देशन में। हिन्दी में इसे इसके मूल डायरेक्टर राजेश पिल्लई ने ही बनाया। मगर दुखद बात यह कि 6 मई, 2016 को इस फिल्म के आने से कुछ ही हफ्ते पहले महज 41 की उम्र में राजेश चल बसे।
इस फिल्म की खास बात है इसका एक इमोशनल-थ्रिलर होना क्योंकि आमतौर पर अपने यहां ही नहीं बल्कि हॉलीवुड और दुनिया की तमाम दूसरी फिल्म इंडस्ट्रियों में भी इमोशन और थ्रिल का मेल बमुश्किल ही देखने को मिलता है। साथ ही इस फिल्म की एक बड़ी खासियत है इसकी कहानी को ‘हाइपरलिंक’ फॉर्म में दिखाया जाना। कहानी कहने का यह एक ऐसा तरीका है जिसमें कई छोटी-छोटी कहानियों के सूत्र एक साथ पिरोए जाते हैं। अपने यहां 2008 में आई सोहा अली खान, आर. माधवन, इरफान, के.के मैनन वाली ‘मुंबई मेरी जान’ को इसी जॉनर में रखा जाता है।
एक दिन के महज कुछ घंटों की इस कहानी में एक बर्खास्त ट्रैफिक कांस्टेबल अपनी ड्यूटी फिर से ज्वाइन कर रहा है। उसी दिन एक युवा पत्रकार अपने पहले एसाइनमैंट पर जा रहा है एक फिल्म स्टार का इंटरव्यू लेने। एक डॉक्टर अपनी शादी की पहली सालगिरह मनाने जा रहा है। एक ट्रैफिक सिग्नल पर ये सब मौजूद हैं। एक हादसा होता है और युवा पत्रकार गंभीर रूप से घायल हो जाता है। डॉक्टर उसे दिमागी तौर पर मृत घोषित कर देते हैं। उधर एक दूसरे शहर में उसी फिल्म स्टार की बेटी मर रही है। उसे इसी पत्रकार का दिल लगाया जाना है लेकिन दिक्कत यह है कि दोनों शहरों में एक सौ साठ किलोमीटर का फासला है जिसे सिर्फ सड़क के रास्ते ढाई घंटे में तय करना है। पुलिस इसके लिए विशेष इंतजाम करती है लेकिन रास्ते में कुछ ऐसा होता है कि मामला गड़बड़ा जाता है। एक चौराहे पर अलग-अलग रास्तों से आकर चंद घड़ियों के लिए रुकने और फिर अपने-अपने रास्ते पर चल देने वाले चंद किरदारों की सलीके से गुंथी हुई यह कहानी चौंकाती है, बेचैन करती है, आंखें नम करती है और सन्न भी कर देती है।
मलयालम फिल्म से इसकी तुलना की जाए (हालांकि यह सही नहीं होगा) तो इस बार मामला हल्का-सा कमजोर नजर आता है। बावजूद इसके इस फिल्म में एक बेहद शानदार स्क्रिप्ट है जो हौले-हौले आगे बढ़ती कहानी के साथ आपके दिल की धड़कनों को बढ़ाने का दम रखती है। राजेश का डायरेक्शन जानदार है और कैमरा अपनी मौजूदगी से आपको बांधे रखता है। एक्टिंग तो हर किसी की जानदार है फिर भी मनोज वाजपेयी आपको बताते हैं कि वह हमारे वक्त के बेहतरीन अभिनेता क्यों हैं। जिमी शेरगिल, सचिन खेडेकर, दिव्या दत्ता बेहतरीन लगते हैं तो वहीं प्रसन्नजित और प्रमब्रत मिसफिट। गानों की गुंजाइश ऐसी फिल्म में कम होती है फिर भी बैकग्राउंड में बजते एक गाने ‘नेकी की राह पर तू चल’ के ये बोल दिमाग में अटके रहते हैं-‘सबको तू माफ कर, खुद न इंसाफ कर, उसपे तो हक बस खुदा का ही है…।’
खुद के इंसान होने का गुरूर ज़ोर मार रहा हो, अपने आसपास की दुनिया रहने लायक न लग रही हो या अंदर कुछ खटक-अटक रहा हो तो यह फिल्म देखिए और अगर इसे देखते हुए आंखों से पानी बहे तो पोंछिएगा नहीं, उसके साथ अंदर का कुछ मैल बहेगा और जो बचेगा वह आपको उजला ही करेगा।
अपनी रेटिंग-चार स्टार
(नोट-यह एक पुराना रिव्यू है जो इस फिल्म की रिलीज़ के समय किसी पोर्टल पर छपा था)
Release Date-06 May, 2016
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)