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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-हल्की गुलाबी ‘द स्काइ इज़ पिंक’

Deepak Dua by Deepak Dua
2019/10/10
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
रिव्यू-हल्की गुलाबी ‘द स्काइ इज़ पिंक’
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-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

एक अजीब जेनेटिक बीमारी लेकर 1996 में जन्मी आयशा का छह महीने की उम्र में बोन-मैरो बदला गया। वह ज़िंदा तो रही लेकिन उसके फेफड़े बहुत कमज़ोर हो गए। इतने ज़्यादा कि जीने के लिए उसे रोज़ संघर्ष करना पड़ता था। अपने इन्हीं संघर्षों को उसने 15 बरस की उम्र से दुनिया को बताना शुरू किया। वह एक नामी मोटिवेशनल स्पीकर बनी और एक किताब भी लिख डाली। लेकिन इस किताब के छप कर आने के अगले ही दिन 18-19 उम्र में वह चल बसी।

है न कुछ अलग-सी कहानी! हैरानी की बात यह है कि यह कहानी बिल्कुल सच्ची है और इस फिल्म में इसे दिखाया भी बिल्कुल सच्चे अंदाज़ में गया है। यहां तक कि पात्रों के नाम, तारीखें, जगह वगैरह, सब कुछ वही हैं जो आयशा की ज़िंदगी में थे। जूही चतुर्वेदी और नीलेश मनियार के साथ मिल कर डायरेक्टर शोनाली बोस ने इस कहानी को विस्तार से फैलाया और समेटा है। फिल्म आयशा से कहीं ज़्यादा उसके माता-पिता अदिति और निरेन के संघर्ष को दिखाती है कि कैसे वह अपनी बेटी को ज़िंदा, स्वस्थ और एक हद के बाद सिर्फ खुश भर रखने के लिए जुटे रहते हैं। इन्हें पता है कि आयशा जाने वाली है और ऐसे में इनका सिर्फ एक ही मकसद रह जाता है कि उसे जल्दी से जल्दी वह सारे अनुभव करा दिए जाएं जो इस उम्र की दूसरी आम लड़कियां कर लेती हैं। अपने ही बेटे से बोल कर अपनी किशोर उम्र की बेटी के लिए उसके दोस्त के साथ डेट फिक्स कराती मां भला किस कहानी में दिखाई देती है। सच तो यह है कि यह फिल्म आयशा से ज़्यादा अदिति की कहानी कहती है, उसका संघर्ष दिखाती है। वही अदिति, जो अपनी बेटी की देखभाल करते-करते खुद पागलपन की हद तक जा पहुंचती है।

फिल्म का लुक भी भरपूर रियल रखने की कोशिशें हुई हैं। 1996 से 2015 तक की दिल्ली और लंदन के बीच गियर बदलती गंभीर कहानी को हल्का-फुल्का बनाए रखने की कोशिशें भी की गई हैं। लेकिन इसकी ढाई घंटे की लंबाई और कई जगह सुस्त रफ्तार इसे बोझिल बना देती है क्योंकि एक वक्त के बाद चीज़ों में दोहराव नज़र आने लगता है। ऐसी फिल्मों में राहत के पल जितने और जिस किस्म के होने चाहिएं, वे नहीं हैं। जो गंभीर या इमोशनल पल हैं उनमें भी गाढ़ेपन की कमी दिखती है। इस किस्म की कहानी में दिल चीरने और आंखें नम करने का जो दम होना चाहिए, वह भी इस फिल्म में हल्का रहा है। अंत में जाकर संभलने और दिल छूने से पहले ही यह सब्र के इम्तिहान में दर्शक को फेल कर चुकी होती है। संवाद कहीं-कहीं अच्छे हैं, मारक नहीं। बतौर डायरेक्टर शोनाली के काम में परिपक्वता तो बेशक है लेकिन कहानी को आगे-पीछे करके बयान करने में वह कई जगह रोचकता बनाए रखने में चूकी हैं और कन्फ्यूज़ ज़्यादा करती हैं। और हां, इस फिल्म के नाम का भी इसकी कहानी से सीधे तौर पर कोई नाता नहीं दिखता।

एक्टिंग में प्रियंका चोपड़ा और फरहान अख्तर ने खूब ज़ोर लगाया है। प्रियंका की तारीफ उनकी एक्टिंग के साथ-साथ निर्मात्री के तौर पर भी होनी चाहिए जो वह इस किस्म की फिल्मों पर दांव लगा रही हैं। काम बाकी सबका भी अच्छा है लेकिन बाज़ी मारती हैं आयशा बनीं ज़ायरा वसीम। ‘दंगल’ और ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ के बाद इस फिल्म में भी अपने भावों का परफैक्ट प्रर्दशन करने वाली ज़ायरा को शायद यह अहसास ही नहीं कि उनके अंदर कितनी कुव्वत है। गाने अच्छे हैं। लेकिन गुलज़ार ने इन्हें जितना बेहतर लिखा है, प्रीतम उतनी शानदार धुनें नहीं बना पाए और इसीलिए ये अच्छे होने के बावजूद कच्चे लगते हैं।

इस किस्म की फिल्में आम दर्शकों के ज़्यादा मतलब की नहीं होतीं। कुछ हट कर वाली कहानियों को हट कर वाले अंदाज़ में देखने और आर्ट-हाऊस सिनेमा पसंद करने वालों को ही यह फिल्म भाएगी।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-11 October, 2019

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: farhan akhtargulzarjuhi chaturvedinilesh maniyarpriyanka chopraShonali BoseThe Sky Is Pink Reviewzaira wasim
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