-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
चलो-चलो इक फिल्म बनाएं, नाम कैची-सा ढूंढ के लाएं, हीरों की चोरी करवाएं, चोर के पीछे पुलिस दौड़ाएं, चूहे-बिल्ली का खेल दिखाएं, अंत में एक ट्विस्ट ले आएं, पब्लिक को मूरख मान जबरन अपनी थ्योरी पकड़ाएं, चलो-चलो इक फिल्म बनाएं।
(रिव्यू-‘नाम शबाना’-बस दिमाग मत लगाना)
सोच कर ही रोंगटे हरकत में आने लगते हैं कि नीरज पांडेय जैसे थ्रिलर बनाने में उस्ताद समझे जाने वाले निर्देशक की फिल्म में 50-60 करोड़ के हीरे चोरी होंगे, शक तीन लोगों पर जाएगा, अपनी मूल वृत्ति यानी इंस्टिंक्ट पर हद से ज़्यादा गुमान करने वाला एक पुलिस अफसर आकर केस सुलझाएगा लेकिन इस काम में 15 साल बीत जाएंगे और फिर एक ऐसा ट्विस्ट आएगा कि बस…!
(रिव्यू-क्यों देखने लायक है धोनी की यह कहानी…?)
लेकिन हरकत में आए ये रोंगटे उस वक्त निढाल हो जाते हैं जब आप देखते हैं कि इस फिल्म को लिखने वाले लोग असल में दर्शक को मूरख समझे बैठे हैं। उन्हें लगता है कि इस किस्म की फिल्म देखते हुए दर्शक के मन में न तो कोई सवाल आएंगे और यदि आएंगे भी तो वह हमारे परोसे मनोरंजन की तेज़ रफ्तार में उलझ कर उन्हें उठा ही नहीं पाएगा। मगर अफसोस, कि ऐसा नहीं हो पाया है। इस फिल्म की कहानी को लिखने वाले नीरज पांडेय या विपुल के. रावल अपने कागज़ों पर जो घटनाएं, जो किरदार, जो हालात गढ़ते हैं, एक आम दर्शक उससे अधिक बुद्धि रखते हुए उन पर उंगली उठाते हुए पूछ बैठता है कि बताइए, ऐसा कैसे हुआ? यह हुआ तो वह क्यों नहीं हुआ और अगर ऐसा ही होना था तो पहले वैसा क्यों हुआ?
(रिव्यू-बिना तैयारी कैसी ‘अय्यारी’)
कायदे से तो मुझे इस रिव्यू में सीधे-सीधे स्क्रिप्ट के छेदों में से लीक हो रही घटनाओं, किरदारों आदि के बारे में लिख कर बता देना चाहिए जिन पर इस फिल्म के लेखक फिसले हैं, लेकिन उससे स्पाइलर आ जाएगा और रिव्यू-लेखन के कायदे मुझे इसकी इजाज़त नहीं देते। तो बस, इतना ही इशारा समझ लीजिए कि नेटफ्लिक्स पर आई इस फिल्म को देखते समय, देखने के बाद अगर ज़रा-सा भी तर्क लगा कर सोचें कि क्या सचमुच ऐसा होना चाहिए था जो दिखा? क्या सचमुच ऐसा होता है जो इन्होंने दिखाया? और अगर लेखक ‘ऐसे’ की बजाय ‘वैसा’ कर देते तो चोर कहीं जल्दी पकड़ में न आ जाता?
(रिव्यू-न कसक न तड़प और कहानी बेदम)
नीरज पांडेय कभी लेखक तो कभी निर्देशक के तौर पर कभी अच्छी तो कभी खराब फिल्में भी देते रहे हैं। इस बार उनके निर्देशन में हल्कापन है। लेकिन फिल्म की शुरुआत में ही ‘चोरी जिसके यहां हुई वह होम-मिनिस्टर का दोस्त है’ जैसी घिसी-पिटी लाइन पढ़ कर यदि उनके भीतर का काबिल निर्देशक नहीं जागा तो फिर यकीनन पूरी फिल्म में नहीं ही जागा होगा। कहानी की रफ्तार बेहद धीमी है और आप सुस्ताते हुए भी इस उम्मीद में इसे देखते हैं कि शायद अंत में कोई धमाका होगा। लेकिन जब पिलपिला और अधूरा अंत सामने आता है तो आप जिस तरह से अपने पैसे और वक्त की जेब कटी हुई महसूस करते हैं, उसका वर्णन आप खुद ही कर पाएंगे।
जिम्मी शेरगिल अपनी अदाकारी से प्रभावित करते हैं लेकिन उनके किरदार को ‘हीरो’ की बजाय हारा हुआ दिखाया जाना जंचता नहीं है। अविनाश तिवारी ने वक्त के साथ-साथ खुद को चमका लिया है। वह खासे प्रभावित कर पाते हैं। तमन्ना भाटिया को बहुत कमज़ोर रोल मिला। दिव्या दत्ता चंद पलों में ही असर छोड़ गईं। गाने-वाने ठीक-ठाक हैं।
(रिव्यू-मज़बूत इरादों से जीतने का ‘मिशन रानीगंज’)
अपने लाउड बैकग्राउंड म्यूज़िक से किसी शानदार सस्पैंस थ्रिलर का आभास कराने वाली यह फिल्म दर्शकों के वक्त की बर्बादी के अलावा उन लोगों के टेलैंट की भी बर्बादी करती है जिनसे हम अच्छे सिनेमा की उम्मीद रखते हैं। लेकिन जब यही लोग अंत में हमें एक पहाड़ी पर सिर्फ इसलिए लटकता छोड़ कर चले जाते हैं कि वे इसका सीक्वेल बना कर लौट सकें तो हमें इन लोगों में फिल्मकारों की नहीं, ठगों की छवि नज़र आती है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-29 November, 2024 on Netflix
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
क्या तेज बरछी की तरह चली है आपकी कलम जबरदस्त समीक्षा दीपक जी 👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻
धन्यवाद भाई साहब…
रिव्यु क़े लिए बस इतना ही कि गागर में सागर भर दिया है…. समय कि बर्बादी से अच्छा टॉम एन्ड जेरी या विक्रम औऱ बेताल देखना बेहतर होगा….
धन्यवाद