-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
किसी फिल्म में किसी खास किरदार को देखते हुए अक्सर जेहन में यह सवाल आता है कि यह किरदार कहां से आया होगा… कैसी होगी इसकी पिछली जिंदगी… आज यह जैसा है, वैसा यह क्यों है… वगैरह-वगैरह। नीरज पांडेय की फिल्मों में ‘ए वैडनसडे’ के नसीरुद्दीन शाह, ‘स्पेशल 26’ के राजेश शर्मा, जिमी शेरगिल, ‘बेबी’ के अनुपम खेर, तापसी पन्नू, राणा डग्गूबाटी आदि के किरदारों के बारे में ये फिल्में कुछ नहीं बतातीं। ऐसे ही किरदारों की बैक-स्टोरी इन फिल्मों के पूर्व-भाग यानी प्रीक्वेल तैयार करवा सकती हैं। और चूंकि इन सबमें से ‘बेबी’ में जरा देर के लिए आई सीक्रेट एजेंट शबाना खान (तापसी पन्नू) की पिछली जिंदगी के बारे में जानने की उत्सुकता सबसे ज्यादा हो सकती है, तो उस पर यह फिल्म बना दी गई है। लेकिन क्या ‘बेबी’ का यह प्रीक्वेल भी उतना ही शानदार और कसा हुआ है? अफसोस भरा जवाब है-बिल्कुल नहीं।
जासूसों के बारे में पढ़ते-सुनते और उन्हें फिल्मी पर्दे पर देखते हुए एक आम इंसान अक्सर यह सवाल पूछ बैठता है कि आखिर वह क्या बात, किस चीज का लालच, कौन-सा जज्बा होता है जो किसी इंसान को जासूस या सीक्रेट एजेंट जैसा काम अपनाने को प्रेरित करता है। ‘बेबी’ ने इस सवाल का जवाब दिया था-‘मिल जाते हैं कुछ ऑफिसर्स हमें, थोड़े पागल, थोड़े अड़ियल, जिनके दिमाग में सिर्फ देश और देशभक्ति घूमती रहती है।’ यह फिल्म हमें इसी जवाब के पीछे की कहानी में लेकर जाती है कि कैसे शबाना नाम की एक आम लड़की को खुफिया एजेंसी वाले ट्रैक करते हैं, उसकी मदद करते हैं और बदले में उसे अपनी एजेंसी में शामिल होने और देश की सुरक्षा में सहयोग करने को कहते हैं। लेकिन अफसोस, कि इस फिल्म में शबाना का किरदार देश के प्रति ऐसी किसी भावना का प्रदर्शन नहीं करता और इसी वजह से वह अच्छा लगते हुए भी अपना-सा नहीं लगता।
हालांकि शबाना का किरदार बढ़िया गढ़ा गया है। उसकी जाती जिंदगी के हादसों ने उसे रूखा और गुस्सैल बना दिया है। उसकी यही खासियत ही एजेंसी को शबाना की तरफ आकर्षित करती है। एजेंसी की नजर में यह एक ऐसी लड़की है जिसके पास दिमाग और जोश दोनों हैं। लेकिन इससे आगे जो कहानी बुनी गई है वह इस किरदार की अहमियत को कम करती जाती है। एजेंसी सिर्फ उसका जोश इस्तेमाल करती है। हर कदम पर उसे सिर्फ दी हुई जगह पर दिए हुए आदेश मानने हैं, अपना दिमाग नहीं लगाना है। दिमाग तो इस फिल्म की स्क्रिप्ट रचते समय भी ज्यादा नहीं लगाया गया है और यही वजह है कि फिल्म में न तो अपेक्षित पैनापन है, न कसावट और न ही वह रफ्तार, जो इस फ्लेवर की फिल्मों के लिए जरूरी मानी जाती है। शुरू में कई सारे सीन गैरजरूरी और काफी लंबे हैं। विलेन को पकड़ने वाले जो सीन हैं वे काफी ‘फिल्मी’ और चलताऊ किस्म के हैं और जरा-सा भी दिमाग लगाया जाए तो जेहन में जो सवाल उठते हैं, उनके जवाब नहीं दे पाते।
तापसी पन्नू का काम तारीफ का हकदार है। हर रूप, हर सीन में वह अपना असर छोड़ती हैं। अक्षय कुमार कुछ देर के लिए आते हैं और लुभाते हैं। मनोज वाजपेयी सिर्फ चेहरे से उम्दा अभिनय कर जाते हैं। बाकी लोग भी ठीक काम कर गए लेकिन कोई भी किरदार इस कुशलता से नहीं गढ़ा गया जो फिल्म खत्म होने के बाद आपको याद आकर गुदगुदाता-उकसाता रहे। ज्यादातर गाने ऐसे हैं जो फिल्म के प्रवाह को और ज्यादा सुस्त बनाते हैं।
निर्देशक शिवम नायर अगर नीरज पांडेय की लिखी पटकथा में कुछ अपना इनपुट भी डालते और इसे ज्यादा तार्किक बना पाते तो यह फिल्म और निखर सकती थी। जासूसी कहानियों के बारे में कहा जाता है कि इनमें वह नहीं पढ़ाया जाता जो आप पढ़ना चाहते हैं, बल्कि वह पढ़ाया जाता है जो लेखक आपको पढ़वाना चाहता है। यह फिल्म भी ठीक ऐसी है। टोनी का पता मलिक देगा और उसका पता उसकी प्रेयसी सोना जो एक ही बार में अक्षय कुमार के कमरे में आने को राजी हो जाएगी। सोचिए, अगर वह न राजी होती तो? सोचिए, अगर ये लोग मलिक से पता नहीं उगलवा पाते तो? एक बात और सोचिए कि गार्ड लोग इन के एक ही वार में बेहोश हो जाते हैं और विलेन लोग इन से खूब मार खाकर भी बचे रहते हैं? प्लीज… सोचिए मत क्योंकि जहां आपने दिमाग लगाया, वहीं यह फिल्म आपको धोखा देती और ठगती नजर आएगी।
अपनी रेटिंग-दो स्टार
Release Date-31 March, 2017
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)