-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘एक भी फायर फाइटर का नाम मालूम है क्या पब्लिक को…? नेता, अभिनेता के नाम का चौक बनाते हैं…!’
इस फिल्म में एक फायरमैन जब यह कहता है तो उसकी यह बात कानों को चीरती हुई निकल जाती है। सच ही तो है। हम में से कितने होंगे जो किसी फायरमैन को पर्सनली जानते हैं? कितने होंगे जिन्हें उनकी निजी और वर्किंग ज़िंदगी के बारे में करीब से पता है? सच यही है कि ज्वाला से खेलने वाले जांबाज़ों के बारे में हम में से ज़्यादातर लोग नहीं जानते और इस सच का एक स्याह पहलू यह भी है कि हिन्दी सिनेमा में आज तक इन लोगों को केंद्र में रख कर एक भी फिल्म नहीं बनी। अमेज़न प्राइम पर आई राहुल ढोलकिया की यह फिल्म ‘अग्नि’ उसी कमी को दूर करती है और हमें दिखाती है कि ये ‘अग्नि-वीर’ भी हमारी-आपकी तरह इंसान हैं, लेकिन कुछ अलग जीवट वाले।
इस फिल्म को देखते हुए इसे लिखने वालों की रिसर्च उभर कर सामने आती है। कुछ फायर फाइटर्स की ज़िंदगी के इर्दगिर्द घूमती कहानी में उनके पर्सनल और प्रोफेशनल संघर्ष दिखाती यह फिल्म हमें उनके परिवारों, उनकी सोच और उनके जज़्बों में झांकने का मौका देती है। इस विषय को सोचने, उसे लिखने और बनाने वाले तमाम लोग इस काम के लिए सराहना के हकदार हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि यह फिल्म जितनी ज्वलंत होनी चाहिए थी, उतनी हो नहीं पाई और इसका कारण है इसकी कहानी का भटकाव।
मुंबई शहर में जगह-जगह ऐसी आग लग रही है जहां तापमान एक हज़ार डिग्री तक पहुंच जाता है। फायर चीफ विट्ठल को शक है कि यह आग जान-बूझ कर लगाई जा रही है। एक बिल्डर है जो ऐसी आग लगी जर्जर इमारतें खरीद रहा है। विट्ठल के पुलिस इंस्पैक्टर साले को उस बिल्डर पर शक है। जीजा-साले में वैसे ही तनातनी रहती है, इस केस को लेकर इन दोनों में और तन जाती है। आखिर कैसे लग रही है यह आग? कौन लगवा रहा है? क्या मकसद है उसका?
कहानी में सस्पैंस है और थ्रिल का एलिमैंट भी। लेकिन इसे देखते हुए लगता है कि लिखने वालों ने इसे अपनी सुविधानुसार मनचाही दिशा में मोड़ा है। कहीं घटनाओं में सहज प्रवाह की कमी खलती है तो कहीं किरदारों को मज़बूत ज़मीन न मिल पाने की। अंत में आने वाला ट्विस्ट इसे और अधिक भटका देता है।
फायर फाइटर्स पर फिल्म बनाना अपने-आप में इस कदर जोखिम भरा है कि लगता है राहुल ढोलकिया और उनकी टीम ने इसे दिलचस्प बनाने के लिए ये पैंतरे आजमाए होंगे। यूं उन्होंने फायर फाइटर्स के दर्द के साथ-साथ समाज की लापरवाहियों पर भी तीखी बातें की हैं। ‘चिपक के बिल्डिंग बना दी, फायरमैन का गाड़ी जाएगा कैसे?’ और ‘फ्रिज का थर्मोकोल भी सीढ़ी पे, पुराना फर्नीचर भी सीढ़ी पे, बच्चे का साइकिल भी सीढ़ी पे और आग लगी तो मेरा फायरमैन मरता भी सीढ़ी पे है।’ जैसे ‘अग्नि’ के संवाद यदि आम दर्शकों और हमारे सिस्टम को चलाने वालों को थोड़ा और संवेदनशील बना सकें तो यह फिल्म अपना मकसद पा लेगी।
प्रतीक गांधी असरदार रहे हैं। दिव्येंदु शर्मा भी सही रहे। सई तम्हाणकर खूब जंचीं। सैयामी खेर (जो अंग्रेज़ी में अपना नाम सैयामी लिखती हैं मगर चाहती हैं कि हिन्दी में उन्हें संयमी लिखा जाए) ने अपने किरदार को सलीके से पकड़ा। जितेंद्र जोशी अपने दृश्यों में असर छोड़ गए। बाकी के कलाकार भी बढ़िया काम कर गए ।
‘अग्नि’ के सैट्स, स्पेशल इफैक्ट्स और स्टंट दृश्यों की तारीफ ज़रूरी है। आग के दृश्यों को पर्दे पर बड़ी कुशलता से रचा गया है। फिल्म की पृष्ठभूमि मुंबई की है और इसके संवादों में काफी सारी मराठी है जो इसकी पहुंच को सीमित कर सकती है। सिर्फ कुछ ही जगह भावुक होने का मौका देती ‘अग्नि’ यदि थोड़ी और मारक, थोड़ी और कसी हुई व थोड़ी और करारी होती तो यह दर्शकों के अंदर की आग को ज़ोर से भड़का सकती थी।
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Release Date-06 December, 2024 on Amazon Prime Video
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)