-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
इस फिल्म (राष्ट्र कवच ओम) के हीरो का नाम है ओम राठौड़ (हालांकि फिल्म में उसे राथोड़, रातोड़, राथोर, रातओर वगैरह-वगैरह भी कहा गया है। रोमन में स्क्रिप्ट लिखी हो तो ज़रूरी नहीं कि हर कोई सही नाम बोल ही दे)। देश का जांबाज़ कमांडो है वह। इतना बलशाली कि सब कुछ उखाड़ दे लेकिन उसका कुछ न उखड़े। एक हादसे में उसकी याद्दाश्त चली जाती है लेकिन वह लौटता है ताकि राष्ट्र के खोए हुए कवच को वापस ला सके और साथ ही अपने परिवार के माथे पर लगा गद्दारी का धब्बा मिटा सके। कवच-यानी परमाणु हमले से देश-दुनिया को बचाने वाला एक वैज्ञानिक फॉर्मूला जो गलत हाथों में नहीं पड़ना चाहिए।
इस फिल्म के निर्देशक कपिल वर्मा के पिता टीनू वर्मा हिन्दी की कई मसाला एक्शन फिल्मों के स्टंट डायरेक्टर रहे हैं। उन्होंने एक्टिंग में भी हाथ आजमाया और सनी देओल वाली ‘मां तुझे सलाम’ के अलावा दो-तीन फिल्में डायरेक्ट भी कीं। अब कपिल की यह फिल्म देख कर लगता है कि उन्होंने बचपन से अपने आसपास जिस किस्म का माहौल और सिनेमा देखा, उसी को अपने भीतर बिठा लिया और ठीक वैसी ही मसालेदार फॉर्मूला फिल्म बना डाली जैसी उनके पिता बनाया करते थे या जैसी फिल्मों में वह एक्शन डायरेक्टर हुआ करते थे। ऐसा एक्शन, जिस पर यकीन भले न हो लेकिन जिसे देख कर आपको मज़ा आए। पिता ने ‘गदर-एक प्रेमकथा’ में हैंडपंप उखड़वाया था, बेटे ने इस फिल्म में भारी-भरकम ज़ंजीर से बंधा सीमेंट का चबूतरा उखड़वा लिया। अब इतना तो चलता ही है इस किस्म की फिल्मों में।
इस फिल्म का नाम जितना अजीब-सा है, फिल्म उतनी बुरी नहीं है। फिल्म में बाकायदा एक कहानी है जो ठीक-ठाक लगती है। उस पर लिखी गई एक ऐसी स्क्रिप्ट है जो अपनी धीमी गति के बावजूद बहुत ज़्यादा नहीं अखरती है। निर्देशक ने भी अपनी पहली फिल्म होने के बावजूद ठीक-ठाक काम किया है। अब भले ही इस ‘ठीक-ठाक काम’ के लिए गंभीर लोगों से कॉमेडी करवाई जाए या आइटम गर्ल की टांगें दिखाता गाना घुसाया जाए, मकसद तो दर्शकों को लुभाना ही है न। फिर इन सबसे ऊपर एक्शन का ताबड़तोड़ मसाला और कहानी के ट्विस्ट व किरदारों के पल-पल बदलते तेवर तो हैं ही।
आदित्य रॉय कपूर अपनी (सीमित) रेंज में रह कर अच्छा काम कर ही जाते हैं। उनका बलशाली अवतार देखना अच्छा लगता है। नायिका संजना सांघी फीकी हैं और ‘ठंडी’ भी। ऐसी फिल्म में हीरोइन को एकदम कड़क, रापचिक होना मांगता। प्रकाश राज, प्राची शाह, जैकी श्रॉफ ठीक रहे। सबसे ज़्यादा असरदार काम आशुतोष राणा का रहा। अपने किरदार को अपने भावों से व्यक्त करना कोई उनसे सीखे। कुछ एक संवाद उम्दा हैं।
यह फिल्म दरअसल बरसों पहले आने वाली उन एक्शन मसाला फिल्मों की कतार का हिस्सा है जिनमें एक ही कहानी में परिवार, प्यार, देशभक्ति, गद्दारी, कॉमेडी, एक्शन, रोमांस, गाना-बजाना-नाचना जैसे मसाले डाल कर ज़ोर-ज़ोर से हिलाते थे और अक्सर कुछ ऐसा बन कर सामने आता था जिसे आम दर्शक दिमाग लगाए बिना, गंभीर रिव्यू पढ़े बिना और खुद गंभीर हुए बिना, बस टाइमपास के लिए देख लिया करते थे। ऐसी फिल्में, जो छोटे सैंटर्स के और सस्ती टिकटों वाले सिंगल-स्क्रीन थिएटरों के दर्शकों के लिए मनोरंजन का समाचार लेकर आती थीं। लेकिन कपिल भूल गए कि अब उन आम दर्शकों के पास सोशल मीडिया के तमाम साधनों के अलावा रीलें देखने और रीलें बनाने तक की व्यस्तताएं मुफ्त में उपलब्ध हैं, तो ऐसे में वे ‘टाइमपास’ के लिए पैसे क्यों खर्चेंगे?
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-01 July, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)