-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
यदि आपने इस फिल्म का ट्रेलर देखा होगा तो आपको पता चल गया होगा कि पटना की तन्वी शुक्ला बढ़िया खाना बनाती है लेकिन बतौर वकील उसकी न तो कोर्ट में कुछ खास कद्र है, न ही घर में। एक दिन एक लड़की रिंकी उसके पास अपना केस लेकर आती है कि उसका पेपर तो बहुत अच्छा हुआ था लेकिन रिज़ल्ट में वह फेल हो गई। तन्वी को पता चलता है कि यह असल में बहुत बड़ा स्कैम है। नालायक बच्चों से पैसे लेकर उनकी मार्कशीट काबिल बच्चों के साथ बदल दी जाती है। एक दबंग नेता उसे रिंकी का केस छोड़ने के लिए धमकाता है। न मानने पर उसके घर पर बुलडोजर चलवाया जाता है, उसके पति को सस्पैंड कर दिया जाता है। लेकिन न तो रिंकी झुकती है और न ही तन्वी शुक्ला।
यह तो हुई ट्रेलर की बात। तो चलिए अब फिल्म ‘पटना शुक्ला’ की कहानी बताई जाए। अरे, पूरी कहानी तो आपने ऊपर पढ़ ली, अब क्या बचा? आप पूछेंगे कि अगर यही पूरी कहानी है तो फिर फिल्म क्यों देखनी, ट्रेलर ही न देख लें? तो जवाब है-हां, यह काम काफी होगा और समझदारी भरा भी।
ऐसा नहीं है कि यह फिल्म पैदल है। लेखकों ने अपने तईं एक अच्छी कहानी चुनने और बुनने का साहस किया है। एक ऐसी महिला वकील जिसे न तो उसका पति भाव देता है और न ही अदालत का जज। लेकिन एक दिन संयोग से मिले मार्कशीट के फज़ीवाड़े के एक केस के लिए वह ऐसा जूझती है कि देखते ही देखते पटना शहर की यह तन्वी शुक्ला लोगों के लिए ‘पटना शुक्ला’ हो जाती है।
लेकिन डिज़्नी प्लस हॉटस्टार पर आई इस फिल्म ‘पटना शुक्ला’ की सबसे बड़ी दिक्कत इसकी यह कहानी ही है जो अच्छी भले ही हो लेकिन इसमें न तो कुछ नया है और न ही अनोखा। इस कहानी को कुछ ‘हट के’ वाले स्टाइल में परोसा जाता तो भी बात बन जाती लेकिन यहां भी यह कमज़ोर ही रही। पहले तो इसकी स्क्रिप्ट ही ठंडी है। न तो इसमें घटनाओं की आंच है, न ही भावनाओं का उबाल। दबंग लोग वकील को धमकाने की बजाय केस करने वाली लड़की को दबोचते तो केस का दम तो कब का निकल गया होता। खैर… लिखने वालों की मर्ज़ी, हमें क्या।
फिल्म का निर्देशन भी तो हल्का है। विवेक बुड़ाकोटी साधारण पटकथा को ऊंचा ले जा पाने में नाकाम रहे। दृश्यों में थोड़ी और गहराई, थोड़ा और पैनापन इस फिल्म को उठा सकता था। रहस्य, रोमांच, भावुकता, संवेदना, हास्य जैसे रसों का अभाव इस फिल्म को ठंडा ही नहीं, सूखा भी बनाता है।
रवीना टंडन अपने किरदार से न्याय करती हैं। रिंकी बनी अनुष्का कौशिक भी जंचीं। स्वर्गीय सतीश कौशिक बहुत प्यारे लगे। ज़रा देर को आईं सुष्मिता मुखर्जी बेहद प्रभावी रहीं, उनके किरदार को विस्तार दिया जा सकता था। मानव विज, जतिन गोस्वामी, राजू खेर आदि साधारण ही रहे। चंदन रॉय सान्याल ज़रूर असरदार काम कर गए। गीत-संगीत हल्का रहा। अदालत की लोकेशन यथार्थ लगी, एकदम ‘जॉली एल.एल.बी.’ की तरह। दरअसल पूरी ‘पटना शुक्ला’ ही ‘जॉली एल.एल.बी.’ सरीखी दिखती है जिसमें एक वकील अपने मुवक्किल को न्याय दिलाने के लिए खुद को झोंक देता है। लेकिन एक जैसे फ्लेवर वाली हर फिल्म में वैसे ही तेवर हों, यह कोई ज़रूरी तो नहीं है न…! बेवजह खिंचती हुई कहानी और बार-बार आता बोरियत का अहसास ‘पटना शुक्ला’ को मिसेज़ ‘जॉली एल.एल.बी.’ बनने से रोकता है।
(रिव्यू-करारा कनपुरिया कनटाप है ‘जॉली एल.एल.बी. 2’)
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-29 March, 2024 on Disney+Hotstar
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
खूब… आपक़े रिव्यु का सब्जेक्ट ही सबकुछ कह गया… बाकी कुछ इस पर कहने क़े लिए और लिखने क़े लिए कुछ बचता ही नहीं है… Mrs जॉली LLB
आधी पिक्चर ही देखी थी, थक गया देखकर… अब बाक़ी बची हुई देखने की हिम्मत नहीं…😄🙏🏼