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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-थोड़ी हाई थोड़ी फ्लैट ‘पगलैट’

Deepak Dua by Deepak Dua
2021/03/26
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
रिव्यू-थोड़ी हाई थोड़ी फ्लैट ‘पगलैट’
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 -दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

लखनऊ की संध्या का पति आस्तिक शादी के पांच महीने में ही मर गया। कल ही उसकी अंत्येष्टि हुई है। लेकिन संध्या को न तो रोना आ रहा है और भूख भी जम कर लग रही है। उसे चाय नहीं पेप्सी पीनी है, गोलगप्पे खाने है। अगले 13 दिन तक घर में जमा किस्म-किस्म के लोगों की सोच और नज़रों से निबटना है। कुछ पुराने हिसाब चुकता करने है। कुछ नए फैसले लेने है। कुछ चीज़ों पर मिट्टी डालनी है तो कुछ नए बीज भी बोने हैं।

फिल्म शुरू होती है तो लगता है कि वही आम किस्म की ही की कहानी होगी जो इधर हर दूसरी-तीसरी फिल्म में होती है। किसी छोटे शहर का बैकग्राउंड, बड़ा-सा परिवार, ढेरों रंग-बिरंगे किरदार, कोई न कोई पारिवारिक प्रॉब्लम, उसके बरअक्स किसी सामाजिक समस्या का चित्रण और अंत में उसका खुली सोच वाला निदान। हाल ही में आई सीमा पाहवा की ‘रामप्रसाद की तेरहवीं’ भी याद आती है जिसमें गमी वाले घर में 13 दिन के लिए जुटे परिवार वालों के रिश्तों के उतार-चढ़ाव को दिखाया गया था। लगता है कि यह फिल्म भी उसी गली में जाकर कहीं गुम हो जाएगी। लेकिन नहीं, धीरे-धीरे यह अपनी बात कहने लगती है। कदम-कदम आगे बढ़ती है और बताती है कि एक आम आवरण में छुपी यह एक खास-सी फिल्म है जो कुछ हट कर दिखाना चाहती है। अब यह बात अलग है कि नेटफ्लिक्स पर आई यह फिल्म उतनी खास और दमदार नहीं है कि एक नई हाईट पर पहुंच पाती।

उमेश बिष्ट ने कहानी में अच्छे ट्विस्ट डाले हैं। नवेली संध्या की सोच, उसकी उमंगों, पीड़ा, अकेलेपन, इरादों, सपनों और अंत में फैसला लेने की उसकी ज़िद को यह सलीके से दिखाती है। लेकिन दिक्कत फिल्म की स्क्रिप्ट के साथ है। इसमें रोचकता की कमी झलकती है। यह काफी देर तक सपाट-सी बनी रहती है और अंत तक भी एक स्तर से ऊपर नहीं उठ पाती। उमेश इसे थोड़ा और कस पाते, इसमें थोड़ी बैक-स्टोरी डाल कर इसे निखार पाते तो यह इतनी फ्लैट न दिखती।

स्क्रिप्ट में कुछ झोल भी हैं। बिस्तर किराए पर देने वाला कहता है कि 20 परसैंट डिस्काउंट के बाद 35 रुपए का रेट लगाया है। तो क्या असली रेट 43 रुपए 75 पैसे प्रति बिस्तर था…? आस्तिक का छोटे भाई आलोक अपने मृत भाई से नाराज़ है, एक जगह वह कहता भी है आस्तिक भाई ने हमारे लिया किया ही क्या? जबकि फिल्म दिखाती है कि आस्तिक बहुत ही अच्छी नौकरी में था, जिसने अपने पिता तक को रिटायरमैंट दिलवा दी, एक नया मकान भी खरीद लिया। इस नए मकान की किस्त को लेकर परिवार की चिंता भी बेवजह लगती है। मकान के लोन के साथ लोन लेने वाले का बीमा भी होता है और उसकी मृत्यु के बाद पूरा लोन बीमा कंपनी भरती है। संध्या से उसके देवर का प्यार करना भी गैरज़रूरी और ठूंसा गया लगता है।

कुछ एक संवाद बेहतर हैं। ‘जब लड़की लोग को अक्ल आती है न, तो सब उन्हें पगलैट ही कहते हैं।’ ‘लड़कियों की सब फिक्र करते हैं, लेकिन लड़कियां क्या सोचती हैं, इसकी फिक्र कोई नहीं करता।’ ‘अपने फैसले खुद नहीं करेंगे न, तो कोई दूसरा करने लगेगा।’ ये संवाद कहानी के मोड़ों से मेल खाते हैं और इसीलिए अच्छे भी लगते हैं। उमेश बिष्ट के निर्देशन में परिपक्वता है। उन्हें माहौल बनाना बखूबी आता है। अपने कलाकारों से उम्दा काम निकलवाना भी वह जानते हैं। अलबत्ता फिल्म के लिए उम्दा गीत-संगीत वह नहीं बनवा पाए। गायक से पहली बार संगीतकार बने अरिजीत सिंह निराश करते हैं।

संध्या के किरदार में सान्या मल्होत्रा ऐसे लगती हैं जैसे पानी में चीनी घुल जाती है। उनकी सहेली नाज़िया के रोल में श्रुति शर्मा कई दृश्यों में सिर्फ भावों से असर छोड़ती हैं। सयानी गुप्ता, रघुबीर यादव, शीबा चड्ढा, नताशा रस्तोगी, भूपेश पंड्या, आसिफ खान, यामिनी सिंह, जमील खान, राजेश तैलंग, अनन्या खरे, मेघना मलिक, नकुल रोशन सहदेव, अश्लेषा ठाकुर, सचिन चौधरी, सरोज सिंह जैसे तमाम कलाकारों ने भी भरपूर दम दिखाया है। सच तो यह है कि ये तमाम लोग कलाकार नहीं बल्कि किरदार ही लगे हैं। आलोक के रोल में चेतन शर्मा को भरपूर मौके मिले और उन्होंने जम कर काम भी किया। हालांकि बरगद की तरह छाए रहे आशुतोष राणा। जवान बेटे की मौत के बाद गम में डूबे पिता की भूमिका को उन्होंने बिना ज़्यादा संवादों के जी भर जिया। दो सीन में आए शारिब हाशमी जैसे सधे हुए अभिनेता फिल्म में अपने सरनेम को ‘अरोड़ा’ की बजाय ‘अरोरा’ कहने की भूल कैसे कर गए?

यह फिल्म कोई क्रांति लाने की बात नहीं करती। कोई झंडा भी नहीं उठाती। लेकिन अपनी सीमाओं में रह कर और ज़रूरी मनोरंजन देते हुए यह मुद्दे की बात को कह जाती है। यही इसकी सफलता है कि यह ज़्यादा हाई या फ्लैट हुए बिना भी अपने असर को कम नहीं होने देती।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-26 March, 2021 on Netflix

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: ananya khareashutosh ranachetan sharmajameel khanNetflixPagglait reviewraghubir yadavrajesh tailangsanya malhotrasayani guptasharib hashmisheeba chaddhashruti sharmaumesh bistपगलैट
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