-दीपक दुआ…
‘कभी तन्हाइयों में यूं हमारी याद आएगी…’
बात तब की जब मैं ‘फिल्मी कलियां’ के लिए लिखा करता था। हमारे एक संगीत-रसिक पाठक (स्व.) श्री पंडागरे अक्सर हमें संगीत-जगत से जुड़ी किसी हस्ती के बारे में आलेख भेजते थे और हम उन्हें छापा भी करते थे। इसी क्रम में एक बार उन्होंने मुबारक बेगम पर लेख भेजा। मुझे लगा कि इसे और वजनी बनाया जाए, सो मैंने उनसे फोन नंबर लेकर मुबारक बेगम से लंबी बातचीत की। उसके बाद मुबारक बेगम से कई बार फोन पर बातें हुईं। इच्छा तो यह भी थी कि मुंबई जाकर उनसे मिल कर कैमरे पर उन्हें रिकॉर्ड किया जाए। कुछ फिल्मकार मित्रों को सुझाया भी कि उन पर डॉक्यूमैंट्री बनाई जाए मगर कभी वक्त आड़े आया तो कभी किस्मत। खैर, यह संतुष्टि है कि मैंने जब-जब उनके बारे में कहीं लिखा तो किसी न किसी ने उनकी मदद भी की। लीजिए उनसे हुई बातें पढ़िए। आलेख थोड़ा लंबा है मगर है दिलचस्प।
हिन्दी फिल्म–संगीत के सुरीले सफर के दौरान कई ऐसी आवाजें भी सुनाई दीं जिन्हें वह कामयाबी और शोहरत नहीं मिल पाई जिसकी वे हकदार थीं। ऐसी ही कमनसीब आवाजों में एक नाम मुबारक बेगम का भी है जिन्हें अव्वल तो ज्यादा गाने ही नहीं मिले और जो मिले उनमें से ज्यादातर कामयाब न हो सके। बावजूद इसके मुबारक बेगम के कई गीत आज दशकों बाद भी चाव से सुने जाते हैं। मुंबई के एक उपनगर जोगेश्वरी में गुमनामी और मुफलिसी की जिंदगी गुजारती रहीं मुबारक बेगम अपने इंतकाल (18 जुलाई, 2016) से कुछ अर्सा पहले तक हर मिलने वाले से यही गुजारिश करती रहीं कि कुछ काम दिलवाइए ताकि गुजर हो सके। चमक–दमक से भरपूर हमारी फिल्म इंडस्ट्री का यह एक स्याह चेहरा है। पेश है उनकी दास्तान उन्हीं की जुबानी–
‘‘मेरा जन्म सैयद नजीर हुसैन व चांद बीबी के घर में नवलगढ़ (झुंझनू-राजस्थान) में हुआ था। जब मैं पैदा हुई तो किसी नजूमी (भविष्यवक्ता) ने मेरे अम्मी-अब्बा से कहा कि यह लड़की अपने खानदान का नाम बहुत रोशन करेगी। बहुत मुबारक है इसका आना। सो मेरा नाम ही मुबारक रख दिया गया। जब मैं बहुत छोटी थी तभी हमारा परिवार गुजरात शिफ्ट हो गया। यहां मेरे अब्बा फलों का कारोबार करते थे। मेरे एक चाचा की चाय की दुकान थी जिन्हें फिल्में देखने का बहुत शौक था और अक्सर वह मुझे अपने साथ ले जाया करते थे। थिएटर में अंधेरा होते ही मैं सो जाती। पर एक बार हम लोग सुरैया की कोई फिल्म देखने गए और पहली बार मैं सोई नहीं। उनकी आवाज ने मुझ पर जादू-सा असर किया और लौटने के बाद मैं वही गाना गाती रही। चाचा को मेरी आवाज में पता नहीं क्या महसूस हुआ कि उन्होंने मेरे अब्बा को सलाह दे डाली कि मुझे गाने की तालीम दिलवाई जाए और मशहूर क्लासिकल सिंगर उस्ताद अब्दुल करीम खान के भतीजे उस्ताद रियाजुद्दीन खान से मैंने सीखना शुरु किया मगर बहुत ज्यादा नहीं सीखा क्योंकि मेरा मन शास्त्रीय गायन की बजाय सुगम संगीत में था। मैं सुरैया के गाने गा-गा कर रियाज किया करती थी।’’
‘‘गाना मेरे लिए एक शौक ही था और इसे शौक से पेशे में तब्दील करने के पीछे हमारे घर के आर्थिक हालात का हाथ रहा। दरअसल हमारे वालिद साहब इतना नहीं कमा पाते थे कि पूरे परिवार का आसानी से पेट भर सकें। लिहाजा लोगों की सलाह पर उन्होंने मुझे लेकर मुंबई का रूख किया। यहां नरगिस की मां जद्दनबाई की सिफारिश से मुझे रेडियो पर गाने के प्रोग्राम मिलने लगे। रफीक गजनवी, जो एक एक्टर थे और म्यूजिक कंपोजर भी और जिन्होंने महबूब खान की फिल्मों के शुरू में ‘मुद्दई लाख बुरा चाहे क्या होता है, वही होता है जो मंजूर-ए-खुदा होता है’ का नारा दिया था, उन्होंने मुझे कहीं पर सुना और अपनी फिल्म में गाने के लिए बुला भेजा। ताड़देव के फिल्म सैंटर में उस गाने की रिहर्सल थी मगर पहली बार कुछ बड़ा करने का डर मेरे जेहन पर ऐसा हावी हुआ कि मैं माइक के सामने गा ही न सकी और किस्मत के खुले हुए दरवाजे पर से ही लौट आई। ऐसा दो-एक बार और भी हुआ और अब्बा मुझसे काफी निराश हो चले थे। पर तभी मुझे एक और मौका मिला और इस बार मैं यह तय करके गई कि नर्वस बिल्कुल नहीं होना है। यह फिल्म थी ‘आइए’ जिसके संगीतकार शौकत देहलवी ने मुझे मेरा पहला गाना ‘मोहे आने लगी अंगड़ाई, आजा आजा बलम…’ दिया। इसी फिल्म में लता मंगेशकर के साथ ‘आओ चलें, चलें सखी वहां…’ भी मैंने गाया। लता से मेरी पहली मुलाकात इसी गाने की रिकॉर्डिंग पर हुई थी। वह भी उन दिनों नई थीं और फिल्मों में पैर जमाने में लगी थीं। इसके बाद मुझसे हंसराज बहल ने ‘फूलों के हार’ के सातों गाने गवाए। गुलाम मौहम्मद की ‘शीशा’ में मैंने ‘जल जल के मरी…’ गाया। पर बहुत जल्दी मुझे ऐसा महसूस होने लगा कि मेरे साथ कोई खेल खेला जा रहा है। संगीतकार मुझसे अक्सर कहते कि मेरी आवाज शानदार है पर मुझे गाने देने से वह हिचकने लगे। कई बार ऐसा भी हुआ कि किसी गाने के लिए मेरा नाम तय कर लिया गया या मुझसे रिकॉर्डिंग भी करवा ली गई पर फिल्म में वह गाना किसी और गायिका की आवाज में आया। असल में कुछ बड़ी सिंगर थीं जो संगीतकारों को यह धमकी देती थीं कि अगर उन्होंने मुझसे गवाया तो वे उनके लिए कभी नहीं गाएंगी। मैं सब समझती थी पर चुप रहती थी क्योंकि मेरे लिए गाना नाम या शोहरत कमाने की बजाय अपना और अपने परिवार वालों का पेट पालने का जरिया ज्यादा था।’’
‘‘दरअसल किस्मत की यह दगाबाजियां मैंने अपने पूरे कैरियर में लगातार झेलीं। बड़ी फिल्मों और बड़े संगीतकारों की तरफ से मुझे पूरे-पूरे गाने नहीं बल्कि चार-छह लाइनें ही गाने को मिलती थीं। कभी कुछ अच्छा मिला भी तो वह हिट नहीं हुआ। कम नाम वाली फिल्मों के गाने खूब मिलते थे मगर वे चलते नहीं थे और न ही उनके लिए ज्यादा मेहनताना ही मिल पाता था। कमाल अमरोही की ‘दायरा’ का मिलना मेरे लिए एक बहुत बड़ा ब्रेक था जिसमें मैंने सात गाने गाए। मीना कुमारी और नासिर खान की इस फिल्म में मौहम्मद रफी साहब के साथ भी मेरा एक गाना था जिसके बोल थे ‘देवता तुम हो मेरा सहारा, थामा है दामन तुम्हारा…’। इस गाने की रिकॉर्डिंग के समय मैंने रफी साहब से गुजारिश की कि मैं आपके बराबर ऊंचा नहीं गा पाऊंगी तब रफी साहब ने अपना सुर मेरे सुर के बराबर नीचा कर लिया। रफी साहब इंसान के रूप में फरिश्ता थे। जब तक वह जिंदा रहे, बराबर मेरी खोज-खबर लेते रहते थे। मगर किस्मत की मार देखिए कि ‘दायरा’ पिट गई और इसी वजह से इसके गीतों को भी ज्यादा तवज्जो नहीं मिल सकी।’’
‘‘ऐसा नहीं कि मुझे खुशनुमा दिन देखने को नहीं मिले। अच्छा वक्त भी आया मेरी जिंदगी में। एस.डी. बर्मन ने मुझसे बिमल रॉय की ‘देवदास’ में ‘वो न आएंगे पलट कर, उन्हें लाख हम बुलाएं…’ गवाया। हालांकि इस गाने में भी मुझे कुछ ही लाइनें गाने थीं मगर मेरी आवाज से प्रभावित हो कर गीतकार साहिर (लुधियानवी) साहब ने इसे एक पूरा गाना बना दिया। फिर बिमल रॉय ने मुझसे ‘मधुमती’ में ‘हम हाल-ए-दिल सुनाएंगे…’ गाने को दिया जो इस फिल्म के बाकी गानों की तरह काफी सराहा गया। सिर्फ तीन साजिंदों-एक तबलची, एक हारमोनियम वादक और एक सारंगी वादक ने इस गाने में संगीत दिया था। मेरे फिल्मी सफर का सबसे हिट गाना केदार शर्मा ने अपनी फिल्म ‘हमारी याद आएगी’ में दिया था। इस गाने ‘कभी तन्हाइयों में यूं हमारी याद आएगी…’ को सुन कर आज भी हर संगीत-प्रेमी के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। जब इस गाने की रिकॉर्डिंग हो रही थी तो केदार शर्मा आंखें बंद करके इसे सुन रहे थे। बाद में उन्होंने मुझे चार आने दिए। मैं हिचकिचाई तो संगीतकार स्नेहल भाटकर ने मुझे समझाया कि यह शगुन है और जब भी केदार शर्मा ऐसा करते हैं तो वह गाना सुपरहिट होता है और यह हुआ भी।’’
‘‘शंकर-जयकिशन के लिए भी मैंने कई फिल्मों में गाया। ‘हमराही’ में रफी साहब के साथ गाया मेरा गाना ‘मुझको अपने गले लगा लो ऐ मेरे हमराही…’ खासा हिट हुआ। अमीन सायानी साहब की ‘बिनाका गीत माला’ में यह गाना महीनों तक बजता रहा था। ‘अराऊंड द वर्ल्ड’ में शारदा के साथ मैंने गाया-‘यह मुंह और मसूर की दाल…’। ‘आरजू’ में कव्वाली गाई जिसके बोल थे-‘जब इश्क कहीं हो जाता है…’। कल्याण जी-आनंद जी के लिए ‘जुआरी’ और ‘यह दिल किसको दूं’ जैसी फिल्मों में गाया। ‘जुआरी’ का गाना ‘नींद उड़ जाए तेरी चैन से सोने वाले…’ तो बहुत ही लोकप्रिय हुआ था। मदन मोहन के लिए ‘नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे’ में गाया। कल्याण जी-आनंद जी को राष्ट्रीय पुरस्कार दिलवाने वाली फिल्म ‘सरस्वती चंद्र’ में ‘वादा हमसे किया दिल किसी को दिया…’ भी मैंने गाया। ‘काजल’ में ‘अगर तुम न मिलोगे तो मैं यह समझूंगी…’ भी गाया। पर धीरे-धीरे मुझे काम मिलना बंद होने लगा। ‘जब जब फूल खिले’ में मैंने रफी साहब के साथ ‘परदेसियों से ना अखियां मिलाना…’ गाया था पर जब फिल्म में यह गाना किसी और की आवाज में आया तो मैं समझ गई कि मेरा वक्त अब खत्म हो चुका है। ‘रामू तो दीवाना है’ मेरी आखिरी फिल्म थी। इसके बाद न तो कभी मेरे घर के फोन की घंटी बजी और न ही मेरी किस्मत की।’’
‘‘पहले के गानों में गहराई इसलिए भी ज्यादा होती थी क्योंकि उन्हें बनाने वाले पूरी तरह से डूब कर काम करते थे। मुझे याद है नरगिस की ‘शीशा’ में मैंने एक गाना गाया था-‘जल जल के मरूं कुछ कह न सकूं मुझ सा भी कोई नाकाम न हो…’ जिसके संगीतकार थे गुलाम मौहम्मद साहब। किसी एक लफ्ज पर आकर मैं बार-बार अटक रही थी तो उन्होंने मुझे अकेला छोड़ दिया और कहा कि एक हजार दफा इसे बोलो उसके बाद आगे बढ़ेंगे। तो इस किस्म का समर्पण होता था उन दिनों। लाइव म्यूजिक बजता था। सभी साजिंदे एक साथ बजाते थे और किसी एक से भी अगर गलती हो जाती थी तो सारा कुछ फिर से बजाया जाता था।’’
‘‘उस समय के लोगों में ऊंच-नीच की सोच भी नहीं होती थी। मैं जब नई थी तो बहुत शर्माती थी, किसी से बात भी नहीं करती थी। एक बार की बात है मैं महबूब स्टूडियों से रिकॉर्डिंग करके निकली तो टैक्सी का इंतजार कर रही थी कि तभी गीता बाली जी की कार आकर रुकी और उन्होंने इसरार करके मुझे बिठाया और घर तक छोड़ा।’’
‘‘मेरी जिंदगी में ठंडी छांव कम आई और थोडे़ समय के लिए ही आई। सच तो यह है कि मेरी तमाम उम्र अहसास-ए-कमतरी में ही बीती। मुझे हमेशा इस बात का मलाल रहा कि जो मेरा हक था वह मुझे नहीं मिल पाया, चाहे वह काम हो, पैसा हो, शोहरत या फिर अवार्ड्स। यहां तक कि राजस्थान वालों ने भी अपने यहां जन्मीं मुझ कलाकार को भुला दिया। जब फिल्म इंडस्ट्री वालों ने मुझे स्टेज शोज में भी काम देना बंद कर दिया तब मैने खुद को अल्लाह ताला के हवाले कर दिया कि वह जो करता है अच्छा ही करता है। शायर जावेद अख्तर साहब की कोशिशों और मरहूम सुनील दत्त साहब की सिफारिश से मुझे महाराष्ट्र सरकार से छोटा-सा फ्लैट मिला। पर मेरे हालात कभी अच्छे नहीं रहे। मेरी एक बेटी को पर्किंन्सन है। उसकी दवाइयों पर ही काफी खर्चा हो जाता है। सरकार से तीन हजार रुपए की मदद आती है पर वह इस महंगाई में कितने दिन चलती है? मेरा बेटा टैक्सी चलाता है पर उसकी भी आगे चार बेटियां हैं। कुछ अर्सा पहले ए.के हंगल साहब के बारे में छपा तो सुना कि उनकी मदद को बड़े-बड़े लोग आगे आ गए। पर मेरे बारे में जान कर सिवाय ए.आर. रहमान साहब के कोई आगे नहीं आया। शायद मेरी किस्मत में कमतरी ही लिखी है।’’
(नोट-यह बातचीत मुबारक बेगम से कई बार फोन पर हुई बातों का निचोड़ है। इस आलेख में प्रकाशित मुबारक बेगम की तस्वीरें मेरे मौसेरे भाई बृजेश चावला ने उनके घर जाकर खींची थीं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)