-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
मिस्टर एंड मिसेज़ चटर्जी नॉर्वे में रहते हैं। मिस्टर चटर्जी इंजीनियर हैं और उन्हें वहां की नागरिकता बस मिलने ही वाली है। मिसेज़ चटर्जी घर पर रह कर अपने दो छोटे बच्चे संभालती हैं, उन्हें खूब प्यार करती हैं, अपने हाथों से खाना खिलाती हैं। लेकिन उनकी यही ‘हरकतें’ नॉर्वे में बच्चों की देखभाल पर नज़र रखने वाली एजेंसी को खलती हैं और एक दिन उस एजेंसी के कर्मचारी इनके दोनों बच्चों को उठा कर ले जाते हैं। मिसेज़ चटर्जी के लिए यह सीधे-सीधे उनके बच्चों की किडनैपिंग है लेकिन वहां का कानून उनके पक्ष में नहीं बल्कि खिलाफ खड़ा है। अदालत से उन्हें राहत नहीं मिलती, उलटे उन्हें ही पागल साबित करने की बात होने लगती है। पति और परिवार तक छिटकने लगता है। किसी तरह से वह भारत लौटती हैं तो यहां भी कानूनी दांव-पेंच उनके रास्ते में रोड़े अटकाने लगते हैं। आखिर एक लंबी लड़ाई के बाद एक मां को उसके बच्चे मिलते हैं।
कहानी सच्ची है, अच्छी है, अनोखी है, दमदार है। लेकिन क्या हर सच्ची, अच्छी, अनोखी और दमदार कहानी पर उतनी ही उम्दा फिल्म बन जाया करती है? करीब दस बरस पहले कोलकाता की सागरिका चक्रवर्ती के साथ यह मामला हुआ था जिसमें उन्होंने एक लंबी कानूनी लड़ाई दोनों देशों में लड़ी थी। दोनों देशों की सरकारों को भी बीच में कूदना पड़ा था और आखिर उन्हें उनके बच्चों की कस्टडी मिली थी। सागरिका ने इस पर ‘द जर्नी ऑफ ए मदर’ नाम से एक उपन्यास लिखा जिस पर आशिमा छिब्बर ने यह फिल्म बनाई है। लेकिन क्या हर उपन्यास पर्दे पर जानदार तरीके से उतर कर दर्शकों के दिलों में जगह बना सकता है?
आशिमा छिब्बर, राहुल हांडा और समीर सतीजा ने मूल उपन्यास की कहानी को भरसक यथार्थ रखते हुए उसे जिस तरह से एक फिल्म की पटकथा के तौर पर ढाला है, उसके लिए उनकी तारीफ बनती है। ये लोग चाहते तो इस कहानी में ढेरों मसाले, ड्रामा, उतार-चढ़ाव डाल कर इसे और अधिक ‘फिल्मी’ बना सकते थे जिससे यह आम दर्शक का मनोरंजन करते हुए सुपर हिट की राह पकड़ लेती। लेकिन इन्होंने इससे परहेज़ किया और यही परहेज़ इस फिल्म की कमज़ोरी बन गया। इस कहानी में नाटकीयता की कमी इसे एक ‘बोर’ फिल्म बनाती है। इसे देखते हुए आप उस मां के संघर्ष से खुद को जोड़ पाने में भी ज़्यादा सफल नहीं हो पाते जिसके बच्चे उससे जबरन दूर किए जा चुके हैं। इस फिल्म को देखते हुए जो कसक, जो हूक उठनी चाहिए, वह नहीं उठती। इस बहुत लंबी, लगभग सपाट फिल्म को देखते हुए दर्शक को संतुष्टि नहीं मिलती और यही इस फिल्म की नाकामी है।
आशिमा छिब्बर का निर्देशक हालांकि प्रभावी है। कई जगह उन्होंने अच्छे सीन दिए हैं, खासतौर से रानी मुखर्जी के साथ। अंत में भारतीय अदालत के दृश्यों में भी वह असर छोड़ती हैं। लेकिन कई जगह यह भी लगता है कि रानी के किरदार की हरकतों को थोड़ा कंट्रोल किया जाना चाहिए था। वैसे रानी का काम जानदार रहा है। उनके पति बने अनिरबान भट्टाचार्य प्रभावी रहे। जिम सरभ को देख कर तो हैरानी होती है कि कोई कलाकार कैसे अपने हर किरदार में इतना सहज, स्वाभाविक, सच्चा हो सकता है। बाकी के कलाकार भी ठीक रहे। गाने साधारण हैं और आकर कहानी के प्रवाह को डिस्टर्ब ही करते हैं। संवादों में बहुत सारी अंग्रेज़ी, बांग्ला और नॉर्वे की भाषा का इस्तेमाल भी फिल्म की राह में बाधा बनता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-17 March, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
रिव्यु सटीक औऱ निर्णायक है। यथार्थ और चरितार्थ के बीच सामंजस्य न बना पाना भी कई बार फिल्मों की विफलता का कारण बन जाता है।
फ़िल्म देखने योग्य लगती जिसमें की यथार्थता की झलक है।
धन्यवाद…
बहुत ही बेसब्री से इंतजार था इस फिल्म के रिव्यू का! यकीनन रानी मुखर्जी तरीफो के सच्ची हकदार हैं! फिल्म का मुख्य आकर्षण फिल्म की कहानी और रानी ही है! पर रिव्यू थोड़ा कन्फ्यूज करता है! इमोशनल ड्रामा, और फिल्मीपन का अभाव शायद फिल्म को बोरिंग बना सकता है लेकिन… अक्सर सच्ची घटनाओं से प्रेरित ऐसी फिल्मों को यथार्थवादी भी बनाता है! सागरिका के संघर्ष और दर्द के साथ फ़िल्म और पूरी टीम न्याय तो करती है पर उन दर्शको के साथ नही जिन्हे मां को ममता मे भी फिल्मी फ्लेवर चाहिए!