-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘‘सबसे बड़ा मैच होता है एक ऐसा युद्ध, जिसे लड़ कर जीतना पड़ता है, अपने ही विरुद्ध’’
रेलवे में नौकरी कर रहे सिद्धार्थ को खेलों से नफरत है। इतनी ज़्यादा कि अपने बेटे को वह कोई खेल खेलना तो दूर, देखने तक नहीं देता। वजह है उसके अतीत का एक हादसा जब उसके टेलेंट पर उसकी किस्मत का वार हुआ था। लेकिन किसी के समझाने पर सिद्धार्थ संभलता है, उठता है और अपने अधूरे सपने को अपने बेटे के ज़रिए पूरा करने में जुट जाता है। ज़ाहिर है कि जब इरादे नेक हों और कोशिशों में ईमानदारी, तो मंज़िल ज़रूर मिलती है।
खेलों के इर्दगिर्द बनी फिल्मों में हार कर जीतने और गिर कर उठने की कहानियां ही अमूमन आती हैं और अपने प्रेरणादायक संदेश के चलते पसंद भी की जाती हैं। यह कहानी भी वैसी ही है। कुछ अलग है तो यह कि इसमें हारा पिता था, जीतता बेटा है और उसकी जीत में वह खुद अपनी जीत महसूस करता है। सुधांशु शर्मा के लेखन में ज़बर्दस्त परिपक्वता है। अपनी कहानी के प्रवाह को उन्होंने कसी हुई पटकथा के ज़रिए सहज बनाए रखा है। सोनल के संवादों में भी जान है। ऐसे संवाद जो फिल्मी न लग कर इस कहानी में ढले हुए लगते हैं। सच तो यह है कि इस पूरी फिल्म में ‘फिल्मीपना’ नहीं है। खुद से नाराज़ नायक, उसके अक्खड़पने से जूझती पत्नी, ऐसे माहौल में गुमसुम रहता एक बच्चा, दोस्त, पड़ोसी, बाकी सारे किरदार सचमुच किसी फिल्म के नहीं बल्कि अपने आसपास के ही लगते हैं।
के.के. मैनन का काम सधा हुआ रहा है। अपने किरदार के हर पक्ष को भरपूर गहराई से जिया है उन्होंने। श्रीस्वरा और स्वास्तिका मुखर्जी न सिर्फ प्यारी लगीं बल्कि अपने किरदारों को अपने अभिनय से ऊंचा भी उठा ले गईं। बाल-कलाकार अर्क जैन का काम प्रंशंसनीय रहा। राजा बुंदेला ने अपनी निगेटिव भूमिका में जान डाली। सुमित अरोड़ा, अतुल श्रीवास्तव जंचे व अन्य सभी कलाकार भी। गीतों के बोल अर्थपूर्ण व प्रभावी दिखे लेकिन संगीत के मामले में कच्चापन रह गया। साथ ही गीतों की अधिकता भी अखरी। बैडमिंटन के खेल की बारीकियों के अलावा उनके दृश्यों को भी कुशलता से दिखाया व फिल्माया गया।
सुधांशु के निर्देशन में दम है। उन्होंने जिस तरह से कई सीन बनाए और फिल्माए हैं, उससे उनकी काबिलियत का पता चलता है। खेलों के पीछे की राजनीति और गुंडागर्दी पर भी फिल्म सहजता से बात करती है। साथ ही यह एक परिवार, दो दोस्तों, पड़ोसियों आदि के बीच के माहौल को भी वास्तविकता से दिखा पाती है। पिता-पुत्र के रिश्ते की बात भी करती है और प्रेरणा तो देती ही है यह फिल्म, अंत में कुछ एक जगह आंखें नम भी करवाती है। बड़ी बात यह भी है कि यह फिल्म बैडमिंटन के खेल और उसकी चिड़िया यानी शटल को जीवन से जोड़ते हुए अटल बनने का सबक भी दे जाती है।
बस, दिक्कत यह आने वाली है कि ऐसी छोटी फिल्मों को कायदे की रिलीज़ ही नहीं मिल पाती। अभी चंद जगह, काफी कम शोज़ में आई है यह। कहीं मिले तो देखिएगा, वरना जल्द ही यह किसी ओ.टी.टी. पर तो आ ही जाएगी।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-01 September, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Sacchi bat to yhi h ki acchi movies ko space nhi milta
Apka review to hamesha se hi 👏👏👏👏👏
शुक्रिया…
आपके रिव्यु के शब्दों ने “गागर में सागर ” भरने का काम किया है…खेल जगत पर बनी फ़िल्में वाकई कमाल की होती है.. ये अलग बात है कि इस फ़िल्म. के शो कम है और ज़्यादा पब्लिसिटी भी नहीं की गयी है…. जिन मूवीज़ में दम होता है उनकी पब्लिसिटी कम होती है और जो बेदम और राजनैतिक सराबोर से प्रेरित होती है उनकी पब्लिसिटी इतनी की जाती है कि जितना बजट पूरी फ़िल्म. का भी नहीं होता उतना तो उनकी पब्लिसिटी पर खर्च कर दिया जाता है…