-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
2017 की बात है। तेलंगाना में पुलिस ने स्वाति नाम की एक नर्स को गिरफ्तार किया था जिसने अपने प्रेमी राजेश की मदद से अपने पति सुधाकर को मारा था और राजेश के चेहरे को एसिड से जला कर बात फैला दी कि यही सुधाकर है। लेकिन सुधाकर के घर वालों को तब शक हुआ जब अस्पताल में भर्ती राजेश ने मटन-सूप पीने से यह कह कर इंकार कर दिया कि वह तो शाकाहारी है जबकि सुधाकर मांसाहारी था।
इस सच्ची कहानी से प्रेरणा लेकर ‘इश्किया’, ‘उड़ता पंजाब’ वाले अभिषेक चौबे ने अपने साथियों के साथ मिल कर इस वेब-सीरिज़ की कहानी रची है जिसके मूल में स्वाति, उसका पति प्रभाकर और प्रेमी उमेश हैं। प्रभाकर के मरने के बाद यहां उमेश इस तरह से फिट हुआ है कि संयोग से इन दोनों की शक्लो-सूरत एक जैसी है। (हालांकि यही इस सीरिज़ का बेहद बचकाना प्वाईंट भी है कि प्रभाकर और उमेश सात-आठ साल से एक-दूसरे को मिल रहे हैं, स्वाति और उमेश भी मिल रहे हैं, सब उन्हें और वे भी खुद को देख रहे हैं लेकिन किसी को यह अहसास नहीं होता कि इनकी शक्लें मिलती-जुलती हैं, खैर…) हां तो, एक मौत हुई और फिर खुलने लगीं झूठ की परतें। उन परतों को ढकने के लिए बोले गए और झूठ, हुई कुछ और मौतें और कहानी कई दिलचस्प मोड़ों से होती हुई अपनी मंज़िल तक जा पहुंची।
किसी सस्पैंस, मर्डर-मिस्ट्री टाइप की कहानी के बारे में पुरानी कहावत यह कही जाती है कि उसमें आप वह नहीं देखते जो होना चाहिए, बल्कि वह देखते हैं जो लेखक आपको दिखाना चाहता है। इस तरह से देखें तो इस कहानी में बहुत सारे झोल मिलेंगे जिन्हें देखते हुए आप कहेंगे कि ऐसा कैसे हुआ या ऐसा ही क्यों हुआ? लेकिन यदि इन सवालों को किनारे रख कर इसे देखा जाए तो आप न सिर्फ इस सीरिज़ के लेखन के कायल होंगे बल्कि इसे जिस तरह से बनाया गया है, उसकी भी तारीफ करेंगे।
लेकिन यह कहानी इसे लिखने-बनाने वालों की निजी रेसिपी भी लेकर आई है। इसमें वे तमाम तत्व हैं जो ओ.टी.टी. पर सैंसर की बंदिशें न होने के कारण भरपूर डाले जाते हैं और बहुत सारे लोग चटखारे लेकर उनका मज़ा भी लूटते हैं। हिंसा, नंगई, अपराध, ड्रग्स, शराब वगैरह तो खैर है ही, ढेरों गालियां भी हैं जिनमें से अधिकांश बेवजह ठूंसी गई लगती हैं। ठूंसा गया तो इसमें ‘बीफ-परांठा’ भी है और एक किरदार की नक्सल पृष्ठभूमि भी, जिनके बगैर बड़े आराम से काम चल सकता था।
शूटिंग की लोकेशन शानदार है और कैमरे की कारीगरी भी। बैकग्राउंड म्यूज़िक की अलग से तारीफ ज़रूरी है। वैसे इस सीरिज़ को देखे जाने की एक बड़ी वजह इसके कलाकारों का अभिनय भी है। मनोज वाजपेयी जंचते हैं तो कोंकणा सेन शर्मा ने अपने पल-पल रंग बदलते किरदार को उसके अंतस तक छुआ है। वरिष्ठ अभिनेता नासिर और सयाजी शिंदे भरपूर असर छोड़ते हैं। लाल, अनुला नवलेकर, कणि कुसरुति और बाकी सब भी उम्दा काम कर गए। किरदारों को दी गई भाषा उन्हें और रोचक बनाती है।
एक साधारण कहानी में बार-बार और लगातार आते दिलचस्प मोड़ों और हर मोड़ पर मिलते उतने ही दिलचस्प किरदारों के चलते इस सीरिज़ को देखना एक उत्सुकता भरा अनुभव है। बड़ी बात यह भी है कि इसे लिखते व बनाते समय इसमें एक अनोखे किस्म का डार्क-ह्यूमर भी डाला गया है जिससे पूरे समय आपके चेहरे पर एक मुस्कान भी बनी रहती है जो यदा-कदा हंसी में भी बदलती है। किरदारों को कुछ अलग तरह से विकसित किया गया है और सिचुएशन्स में रहस्य व हास्य के साथ-साथ एक अलग तरह का बौद्धिक फ्लेवर दिया गया है जिससे ये आठ एपिसोड कहीं भी बोझिल नहीं करते। रही सूप की बात, तो उसके बारे में नेटफ्लिक्स की इस सीरिज़ को देख कर ही जानना बेहतर होगा।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-11 January, 2024 on Netflix
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
रिव्यु का एन्ड पढ़कर एक ऐसी जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि इस सीरीज़ को ज़रूर देखा जाय….
फ़िल्म में ही क्यों…सस्पेंस रिव्यु में भी डाल दिया जाय तो बात ही क्या है….. वैसे OTT एक लीगल प्लेटफार्म है जहाँ निर्माता, लेखक जो भी एक्टर से करवाया जाय… करवा लेते हैँ… वो चाहे नग्नता हो या अभद्र डायलॉग…
काबिले तारीफ़….