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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-सिनेमा की हीरा मंडी में जन्मी एक नाजायज़ फिल्म-‘कलंक’

Deepak Dua by Deepak Dua
2019/04/21
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
रिव्यू-सिनेमा की हीरा मंडी में जन्मी एक नाजायज़  फिल्म-‘कलंक’
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-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)

प्यार, नफरत, गुस्सा, घृणा, त्याग, ममता, हास्य, वगैरह-वगैरह जैसी बहुत सारी फीलिंग्स किसी कहानी को पढ़ते-देखते समय हमारे मन में उपजती है। पर क्या आप यकीन करेंगे कि ‘कलंक’ देखते समय किसी किस्म का कोई भाव ही नहीं उपजता। इस कदर भावशून्य कहानी है कि फ़िल्म शुरू होने के बाद फिल्म से, खुद से, ज़िंदगी से भरोसा उठने लगता है। मन होता है कि थिएटर में सो जाएं, या बेहतर होगा कि ऐसी फिल्म देखने से तो अच्छा है, मर ही जाएं…!

1946 का लाहौर। शहर का नामी अंग्रेज़ी अखबार चलाने वाले चौधरी (संजय दत्त) के बेटे देव (आदित्य रॉय कपूर) की मर रही बीवी सत्या (सोनाक्षी सिन्हा) अपने पति के लिए दूसरी पत्नी रूप (आलिया भट्ट) को ले आती है। आदित्य-आलिया में प्यार नहीं है सो आलिया खुद पर लाइन मारने वाले लोहार ज़फ़र (वरुण धवन) से पट जाती है जो असल में बदनाम हीरा मंडी की किसी तवायफ की नाजायज़ संतान है। इसी हीरा मंडी में कोठा चलाने वाली बहार बेगम (माधुरी दीक्षित) भी रहती है। शहर का माहौल गर्म है। एक तरफ देश का बंटवारा होने जा रहा है, दूसरी तरफ चौधरी का बेटा मशीनें लाने वाला है जिससे लोहार बेरोजगार हो जाएंगे। इधर ज़फ़र और रूप की प्रेम-कहानी में नए मोड़ आ रहे हैं, उधर चौधरी और बहार बेगम भी इस कहानी का हिस्सा हुए जा रहे हैं। अंत में बंटवारे के दौरान हुए दंगों के बीच यह कहानी अपने मकाम तक पहुंचती है।

यहां इतनी लंबी कहानी आपको बताने का मकसद यह ज़ाहिर करना है कि इस फिल्म को खाली डब्बा मत समझिए। बाकायदा एक कहानी है इसमें, जिसे ‘अगर’ कायदे से फैलाया-समेटा जाता तो यह हमें छू भी सकती थी। लेकिन यह ‘अगर’ इतना लंबा है कि इसमें इस पूरी फिल्म के तमाम ‘किंतु-परंतु’ समाए हुए हैं। पहले सीन से कहानी जिन पगडंडियों पर चलना शुरू करती है, उम्मीद होती है कि जल्द ही यह किसी रास्ते को पकड़ कर सरपट हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं होता और आप इन पगडंडियों के भूलभुलैया में खो कर रह जाते हैं। इस फिल्म की स्क्रिप्ट इस कदर कमज़ोर और हिचकोले खाती हुई लिखी गई है कि यकीन नहीं होता कि इसे बनाने वालों में फिल्म इंडस्ट्री के नामी और अनुभवी लोग शामिल हैं। आप सवाल पूछ सकते हैं कि क्या ये लोग सिर्फ पैसा और मेहनत लगा रहे थे, दिमाग कहां थे इनके?

1946 का लाहौर, और पंजाबियों के इस शहर में एक भी शब्द पंजाबी का नहीं। लोहार का नफीस उर्दू बोलना तो चलिए फिर भी सह लें, न्यूज़पेपर, जर्नलिस्ट जैसे शब्द…! और सोनाक्षी को अपने पति के लिए राजस्थान से आलिया ही क्यों लानी है? इतने अमीर बंदे को अपनी बेटी देने के लिए तो कोई भी परिवार आगे आ जाए। 1946 में शुरू होकर एक साल बाद भी 1946? ज़फ़र का दोस्त अब्दुल (कुणाल खेमू) अचानक से उसका दुश्मन कैसे हो गया? अंत में बलवाइयों की भीड़ ट्रेन में किसी और को क्यों नहीं मारती? सवाल तो इतने हैं कि कोई चाहे तो इस फ़िल्म की खामियों पर डॉक्ट्रेट कर सकता है।

फिल्म की बड़ी कमी यह नहीं है कि इसमें एक खोखली कहानी, एड़ियां रगड़ती पटकथा और पैदल संवाद है, बल्कि इसकी सबसे बड़ी कमी यह है कि इन सब को ज़रूरत से ज्यादा भव्यता के साथ परोसा गया है। विशाल-महंगे सेट, लकदक कपड़े-आभूषण, साफ पता चलते नकली कंप्यूटर ग्राफिक्स, ये सारी चीज़ें मिल कर एक ऐसा बनावटी आवरण तैयार करती हैं जो कहानी के मिज़ाज से मेल नहीं बिठा पाता और यह भव्यता आंखों को सुहाने की बजाय दुखाने लगती है। चलिए माना कि यह सिनेमा है और आप यथार्थ को सपनीला बना कर दिखाना चाहते हैं, तो फिर उसे समय और स्थान में क्यों जकड़ते हैं? भंसाली की ‘सांवरिया’ की तरह बना दीजिए-न जगह की सीमा, न किसी समय-काल का बंधन। वरना लोग तो पूछेंगे ही न कि भाई 1946 के लाहौर में एक भी अंग्रेज़ नहीं था क्या…?

किसी का किरदार कायदे का बना होता तो उसके अभिनय की चर्चा भी होती। मरती हुई सोनाक्षी का लिपा-पुता चेहरा जितना अजीब लगता है उतनी ही वरुण की जिम वाली बॉडी भी। और माधुरी दीक्षित… उफ्फ, कभी जिस चेहरे को देख कर दिल धक-धक करने लगता था, अब उसी चेहरे की ‘प्लास्टिकता’ देख कर उबकाई-सी आती है। आलिया जैसी प्यारी सूरत भी खराब चरित्र-चित्रण के चलते चलताऊ लगने लगती हैं। एक्टिंग अगर किसी की अच्छी और परिपक्व है तो कुणाल खेमू की।

निर्देशक अभिषेक वर्मन के पिता नामी कला-निर्देशक थे। तो क्या अभिषेक को अपनी सारी काबिलियत सेट खड़े करने में ही दिखानी थी? सच तो यह है कि इस फिल्म की भव्यता आंखों के साथ-साथ दिमाग को भी चुंधिया देती है जबकि असल में यह सिर्फ एक आवरण है जो इस बेजान फिल्म के इर्द-गिर्द लपेटा गया है। निर्माता करण जौहर को समझ लेना चाहिए कि मुर्दे पर शिफॉन का कफ़न ओढ़ाने से उसमें जान नहीं आ जाती।

अपनी रेटिंग-एक स्टार

Release Date-17 April, 2019

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: : abhishek varmanaditya roy kapoorAlia BhattKalank reviewkaran joharkunal khemusanjay duttsonakshi sinhaVarun Dhawanकलंक
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