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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-हल्की स्क्रिप्ट से डूबी ‘कागज़’ की नाव

Deepak Dua by Deepak Dua
2021/01/11
in फिल्म/वेब रिव्यू
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रिव्यू-हल्की स्क्रिप्ट से डूबी ‘कागज़’ की नाव
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 -दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में हुए हैं एक लाल बिहारी। एक दिन उन्हें पता चला कि उनके चाचा ने उनके हिस्से की पुश्तैनी ज़मीन हड़पने के लिए उन्हें कागज़ों में मृतक घोषित करवा दिया है। इसके बाद लाल बिहारी बरसों तक तमाम सरकारी दफ्तरों से लेकर कोर्ट-कचहरी तक चक्कर लगाते रहे कि उन्हें ज़िंदा घोषित किया जाए। कई बड़े लोगों के खिलाफ चुनाव तक में खड़े हुए और यू.पी. की विधान सभा में पर्चे तक उछाले। इस दौरान देश भर से उन जैसे ढेरों ‘मृतक’ लोग उनके साथ आ जुड़े और इन्होंने अपना एक ‘मृतक संघ’ तक बना लिया। बरसों के संघर्ष के बाद लाल बिहारी और कुछ अन्य लोगों को ‘ज़िंदा’ घोषित कर दिया गया लेकिन आज भी बीसियों जीवित लोग खुद को जीवित साबित करने की जद्दोज़हद में लगे हुए हैं।

कहिए, है न दमदार कहानी? ऐसी कहानी पर कोई हार्ड-हिटिंग फिल्म बन कर आए तो लगेगी न सिस्टम के गाल पर करारे तमाचे जैसी? या फिर उसे ब्लैक-कॉमेडी की शक्ल में बनाया जाए तो हो जाएगी न वह दूसरी ‘जाने भी दो यारों’ जैसी? लेकिन अफसोस इसी बात का है कि ऐसा हो नहीं पाया है। कहां कमी रह गई?

‘कागज़’ की कहानी दरअसल कागज़ पर तो बहुत दमदार लगती है लेकिन किसी भी दमदार कहानी को उतनी ही दमदार फिल्म में बदलने का दारोमदार इस बात पर होता है कि उसकी स्क्रिप्ट कितनी वजनी लिखी गई और उसका निर्देशन कितनी कसावट लिए हुए है। यह फिल्म इन दोनों ही मोर्चों पर नाकाम रही है, बुरी तरह से। हालांकि कहानी का विस्तार अच्छा है। असल के लाल बिहारी यानी इस फिल्म के भरत लाल के संघर्ष, बेबसी, जीवट, हिम्मत, लड़ाई को दिखाने के साथ-साथ यह फिल्म सरकारी मशीनरी के संवेदनशून्य रवैये और राजनेताओं के अपने हित साधने की बात को भी सामने लाती है। लेकिन यह सब बहुत ही सपाट ढंग से सामने आता है। पटकथा में पैनेपन की कमी फिल्म की धार को भोथरा करती है। न कहीं यह कचोटती है, न चुभती है और अगर इस किस्म की फिल्म देखते हुए भरत लाल का दर्द आपको अपना दर्द न लगे तो समझिए कि कहने वाले के कहने में ही कोई कमी रही गई है। संवाद ज़रूर कहीं-कहीं काफी अच्छे हैं लेकिन फिल्म की पटकथा का ढीला और बासीपन इसे बेस्वाद बनाता है।

पंकज त्रिपाठी के लिए इस किस्म के किरदार अब बाएं हाथ का खेल हो चुके हैं। अपनी ग्रामीण पृष्ठभूमि के चलते वह ऐसे किरदारों को सरपट पकड़ लेते हैं। उनकी पत्नी रुक्मिणी बनीं मोनल गज्जर बहुत प्यारी लगीं और उम्दा काम कर गईं। बाकी सब साधारण रहे-खुद सतीश कौशिक भी। गीत-संगीत प्यारा तो लगता है, शानदार नहीं। लगभग पूरी फिल्म का हिन्दी की बजाय भोजपुरी में होना भी इसके आड़े ही आने वाला है।

बरसों पहले दिल्ली में एक प्रैस-कांफ्रैंस में सतीश कौशिक अपने साथ लाल बिहारी ‘मृतक’ को लेकर आए थे और हमें इस विषय के बारे में बताया था। ज़ाहिर है कि हम लोग चौंके थे और उम्मीद भी जताई थी कि ऐसे विषय पर आने वाली फिल्म तो सिस्टम तक को हिला डालेगी। उसके लगभग 18-19 साल बाद आई इस फिल्म के विषय में आज भी कोई कमी नहीं है। कमी इसके लिखे जाने के ढीले ढंग और फिल्माए जाने के बासी रंग में है। बतौर निर्देशक सतीश कौशिक समय के साथ नहीं बदल पाए हैं। उनका निर्देशन आउटडेटेड-सा लगता है। इस कहानी से अपने मोह को हटा कर वह इसे किसी और निर्देशक को देते तो शायद यह बेहतर बन पाती। 2019 में सेंसर हो चुकी इस फिल्म को सलमान खान जैसे निर्माता और ज़ी-5 जैसे ओ.टी.टी. मंच का भी शुक्रगुज़ार होना चाहिए।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-07 January, 2021

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: amar upadhyaybrijendra kalaKaagaz reviewlal bihari mritakmita vashishtmonal gajjarpankaj tripathiSalman Khansatish kaushikZEE5कागज़
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