-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
अगर इस फिल्म की कहानी बता दी जाए तो आप में से जो लोग इसे देखने का इरादा रखते हैं, उनका मज़ा किरकिरा हो सकता है। इसलिए इतना ही जान लीजिए कि सेना का एक जवान है विक्रम राठौड़ (फिल्म में उसे राठौर, राथौड़, राथौर भी कहा गया है) जिसके साथ धोखा होता है और बरसों बाद उसका बेटा आज़ाद राठौड़ अपने कुछ साथियों के साथ मिल कर सिस्टम से बदला लेने निकलता है। कुछ समय बाद बाप भी इस ‘वॉर’ में शामिल हो जाता है और दोनों मिल कर खूब ‘बैंग-बैग’ करते हुए एक्शन की ‘धूम’ मचाते हैं।
असल में है यह एक औसत किस्म की मसालेदार फिल्म ही जिसमें बाप पर लगे दाग को धोने की कोशिश करते-करते बेटा पूरे सिस्टम की सफाई करने निकल पड़ता है। लेकिन इसे जान-बूझ कर एक उपदेशात्मक फिल्म बनाया गया है जिससे ऐसा लगे कि बनाने वालों को देश की, समाज की और लोगों की बड़ी चिंता है। फिल्म में यह चिंता दिखी भी है और जैसा कि होता आया है, हर बुराई के लिए राजनेताओं और कारोबारियों के गठजोड़ को ही ज़िम्मेदार ठहराया गया है। फिल्म में जो महाराष्ट्र दिखाया गया है वहां के नेता अनपढ़ और भ्रष्ट हैं, जिन्हें सिर्फ झूठ बोलना आता है और सब लोग, यहां तक कि स्पेशल टास्क फोर्स वाले भी एक अरबपति बिज़नेसमैन के इशारों पर नाचते हैं। यह बिज़नेसमैन आने वाले चुनाव में विदेशों से मंगवाया ढेर सारा पैसा झोंक कर सत्ता हथियाना चाहता है लेकिन राठौड़ों की जोड़ी इनके आड़े आ जाती है।
इस फिल्म में बहुत कुछ ‘फिल्मी’ है। तर्क लगाने बैठें तो दिखाई गई जेल से लेकर एडवांस तकनीकों से सज्जित लोग, आधुनिक मोटरसाइकिलें, फूलप्रूफ प्लानिंग आदि में ढेरों खामियां दिख जाएंगी। लेकिन मसालेदार फिल्में देखने का एक अलिखित नियम होता है कि गौर मसालों की खुराक पर करो, उनकी क्वालिटी पर नहीं। इस मामले में यह फिल्म किसी से कम नहीं रही है। बल्कि टिपिकल बॉलीवुड मसाला एक्शन फिल्में पसंद करने वाले तो गर्व कर सकते हैं कि अपने यहां ऐसी फिल्म बनी। सैट, कॉस्ट्यूम, कैमरा, एडिटिंग, बैकग्राउंड म्यूज़िक, मारधाड़, धायं-धायं, स्पेशल इफैक्ट्स जैसे किसी भी मोर्चे पर यह फिल्म आपको निराश नहीं करती है। जिसे आप ‘पैसा वसूल’ फिल्म कहते हैं न, यह वही है।
एटली और रामानागिरीवासन के लिखे को सुमित अरोड़ा के संवाद बेहतर शक्ल देते हैं। एटली चूंकि साऊथ से हैं इसलिए उन्होंने फिल्म की लुक और स्टाइल में वहीं का तेवर रखा है। इसीलिए शाहरुख खान में कई जगह रजनीकांत का अक्स दिखता है। राजनीति की बात करते हुए भी वह खुल कर किसी पर उंगली उठाने से बचे हैं और अंत में इसे एक संदेशात्मक, या कहें कि उपदेशात्मक फिल्म बना ले गए हैं जो दर्शकों से सीधे कहती है कि वोट देते समय सवाल पूछो और सही आदमी को वोट दो।
शाहरुख खान बूढ़े के रोल में तो जंचे, जवानी वाले किरदार में नहीं। नयनतारा अच्छी लगीं। थोड़ी देर के लिए आईं दीपिका पादुकोण मोह गईं। विजय सेतुपति का किरदार और काम, दोनों रोचक रहे। सुनील ग्रोवर को वेस्ट किया गया। लहर खान, सान्या मल्होत्रा, प्रियामणि, संजय दत्त, मुकेश छाबड़ा, ऐजाज़ खान आदि साधारण रहे। साधारण तो इसका गीत-संगीत भी रहा। एक्शन सीक्वेंस की एडिटिंग कुछ ज़्यादा ही कट-टू-कट रही। क्लाइमैक्स को काफी लंबा खींचा गया। सीक्वेल बनाने की संभावना छोड़ना भी तो ज़रूरी था न।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-07 September, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
हम तो आपका लिखा रिव्यू ही रिव्यू मानते हैं बाकी तो बिके हुए लोग हैं।
धन्यवाद… आभार…
जो मजा मसाले में है उसका मजा लेने दो। आप ही कहते हैं ना,
कभी कभी जंक भी हाजमा दुरुस्त रखता है 😂😂😂😂😂😂😂😂 बहुत सही समीक्षा दीपक भाई✌🏻✌🏻✌🏻✌🏻✌🏻✌🏻✌🏻✌🏻✌🏻✌🏻✌🏻✌🏻
👌🏻😊
Na lag na lapet
Honest Review
धन्यवाद…
आपकी बात सही है रिव्यू भी एकदम सटीक दिया है आपने धन्यवाद ।।
धन्यवाद
आपके रिव्यु पर कोई संदेह कियु जाय ये कतई हो नहीं सकता….. हर फ़िल्म का रिव्यु क़ाबिले तारीफ़ होता है…. जैसे कि आपके रिव्यु का ‘आदिपुरुष’ के लिए टाइटल था “राम की कथा नहीं… आदिपुरुष” और ज़ब इस फ़िल्म के डायलॉग का दर्शकों ने मंथन किया तो मामला हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया.. जबकि दुआ जी के रिव्यु ने पहले ही बता दिया था कि ये “श्री राम कि कथा नहीं है”…
यही इस फ़िल्म का रिव्यु भी दर्शता है… फ़िल्म मसालेदार है और अंत में एक सन्देश देती है… और सन्देश ऐसा है जैसे कि साउथ कि फिल्मों का एन्ड होता है… और इस देश के हालात ऐसे हैँ कि शायद ही ये मुमकिन हो कि लोग एजुकेशन के नाम पर वोट दें… बस वोट तो धर्म, जात और क्षेत्रवाद के नाम पर डाला जाता है…
बहराल शहरूख खान साहब की अब उम्र हो चुकी है और पिता के रोल ही आगे से इनको करने चाहिए…. नई जनरेशन को आगे आने दिया जाय