-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
अपनी पहली और पिछली फिल्म ‘आई एम कलाम’ से नीला माधव पांडा ने खुद को एक ऐसे निर्देशक के तौर पर खड़ा कर लिया था जो बच्चों से जुड़े एक गंभीर संदेश को भी सहज और सरल जुबान में मनोरंजन के रैपर में लपेट कर पेश कर सकता है और वह भी बिना किसी फिल्मी मसाले का लेप लगाए हुए। अब अपनी इस दूसरी फिल्म में पांडा ने एक बार फिर यही जोखिम उठाया है। जोखिम इसलिए क्योंकि बच्चों का सिनेमा हो या फिर संदेश देने वाला सिनेमा, अपने यहां का क्रूर बॉक्स-ऑफिस इसे आसानी से स्वीकार नहीं करता। ‘आई एम कलाम’ ने भी टिकट-खिड़की से उतना माल नहीं बटोरा था जितना दूसरे ज़रियों से इक्ट्ठा किया था और अब ‘जलपरी’ के साथ भी यही होने वाला है।
यह कहानी है दिल्ली में रह रहे डॉक्टर देव, उनके दो बच्चों-श्रेया, सैम और इन बच्चों की नानी की। श्रेया बहुत सयानी है और किसी से भी नहीं दबती। एक दिन इनके पापा इन्हें और नानी को अपने गांव में ले जाते हैं। वह वहां एक हॉस्पिटल बनाना चाहते हैं। श्रेया यह सोच कर गांव आई थी कि वह यहां के तालाबों में स्विमिंग करेगी लेकिन गांव के किसी तालाब में पानी ही नहीं है। इस गांव के तीन लड़के पहले तो इन पर रौब जमाते हैं लेकिन श्रेया किसी से नहीं दबती और जल्दी ये सब दोस्त बन जाते हैं। वे लोग इन्हें बताते हैं कि गांव में एक डायन है जो लड़कियों को मार देती है और इसीलिए पूरे गांव में एक भी लड़की नहीं है। लेकिन श्रेया हिम्मत करती है और उस डायन के घर तक पहुंच जाती है। क्या सचमुच गांव में डायन है? और इस गांव में कोई लड़की क्यों नहीं है? यह राज़ फिल्म के आखिर में खुलता है।
मनोरंजन के साथ-साथ बेटियों और पानी को बचाने-सहेजने का संदेश भी देती है यह फिल्म। हालांकि फिल्म कहीं-कहीं एकदम बच्चों के मतलब की हो जाती है और कभी एकदम से बड़ों के, लेकिन इसमें किसी को भी लुभाने के लिए किसी तरह के फालतू मसाले नहीं ठूंसे गए हैं और यही बात इसे बनाने वालों की ईमानदार सोच को दर्शाती है। अंत तक डायन का सस्पैंस बरकरार रहता है और हल्के-फुल्के ढंग से चल रही फिल्म जब अंत में बेटी बचाने का संदेश देती है तो मन भारी और आंखें नम भी हो जाती हैं। फिल्म हमारे समाज के उस दोगलेपन को भी दिखाती है जहां हम भगवान से अच्छी बारिश की प्रार्थना करते हैं लेकिन बरसने वाले पानी को सहेज कर नहीं रखते। लड़की को देवी मान कर पूजते हैं लेकिन उसे अपने आंगन में उतरने से पहले ही मार भी देते हैं। हरियाणा के गांव में पश्चिम बंगाल से लाई गई एक ‘इम्पोर्टेड वाइफ’ के ज़रिए यह फिल्म लड़कियों की कमी पर एक अच्छा तंज भी कसती है।
फिल्म का लेखन सहज है। कई जगह दमदार संवादों की गुंजाइश दिखती है और इनकी कमी खलती है। नीला का निर्देशन सधा हुआ रहा और लोकेशन की उनकी च्वाइस प्रभावी। एक्टिंग की बात करें तो प्रवीण डबास, सुहासिनी मुले, तनिष्ठा चटर्जी, राहुल सिंह जैसे कलाकार तो सही रहे ही मगर मजमा तो लूटा बाल-कलाकारों ने। ‘आई एम कलाम’ वाले हर्ष मयार, उनके दो दोस्त और सैम के रोल में कृषांग त्रिवेदी का काम अच्छा रहा लेकिन इन सबसे ऊपर रहीं श्रेया बनीं लहर खान। लहर के अभिनय में जहां अपने किरदार के मुताबिक चंचलता और दबंगता नज़र आई वहीं एक परिपक्वता भी जो उनके सुनहरे भविष्य के प्रति उम्मीदें जगाती है। फिल्म में तीन गाने हैं और तीनों ही कहानी में रचे-बसे नजर आते हैं। खासकर, पीयूष मिश्रा का ‘बरगद के पेड़ों पे शाखें पुरानी…’ तो बेहतरीन है। कुछ एक प्रतिष्ठित पुरस्कार पाने के लिए इस फिल्म की टीम को तैयार हो जाना चाहिए।
अपनी रेटिंग-3.5 स्टार
(नोट-इस फिल्म की रिलीज़ के समय मेरा यह रिव्यू किसी अन्य पोर्टल पर छपा था)
Release Date-31 August, 2012
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)