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Home फिल्म/वेब रिव्यू

वेब रिव्यू-‘चौरासी’ के सत्य की खोज में लगा ‘ग्रहण’

Deepak Dua by Deepak Dua
2021/06/24
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
वेब रिव्यू-‘चौरासी’ के सत्य की खोज में लगा ‘ग्रहण’
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-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)

2016 का साल। रांची की एस.पी. अमृता सिंह को बोकारो में हुए 1984 के सिक्ख विरोधी दंगों की जांच का जिम्मा मिला है। अमृता ने जांच शुरू की तो पता चला कि जिस ऋषि रंजन को सबने दंगों की अगुआई करते देखा वह तो उसके अपने पिता गुरसेवक सिंह ही हैं। क्या सचमुच ऋषि नरसंहार में शामिल था? तो फिर वह गुरसेवक क्यों बना? और उस मनजीत छाबड़ा यानी मनु का क्या हुआ जिससे वह प्यार करता था। अब कुछ बोल क्यों नहीं रहा है ऋषि? आखिर क्या है बोकारो की छाती पर छप चुके चौरासी का वह सत्य जिसे ऋषि आज भी अपने बूढ़े सीने में छुपाए बैठा है?

डिज़्नी-हॉटस्टार पर आई आठ एपिसोड की यह सीरिज़ नई वाली हिन्दी के हिट लेखक सत्य व्यास के उपन्यास ‘चौरासी’ से प्रेरित है। ‘प्रेरित’ इसलिए कि उपन्यास की कहानी में 1984 के बोकारो शहर और उस शहर में हुए सिक्खों के संहार की पृष्ठभूमि में मनु और ऋषि के प्यार की कहानी थी। लेकिन साहित्य और सिनेमा में कहानी कहने की शैली का फर्क होता है। यह सीरिज़ बताती है कि कहानी को एक दिलचस्प और आकर्षक अंदाज़ में सामने लाने के लिए यह फर्क कितना ज़रूरी है। वैसे भी इन दिनों आ रहीं सीरिज़ इसी पैटर्न पर बनती हैं कि सीधी-सपाट कहानी में कुछ पेंच, कुछ सिलवटें डाली जाएं ताकि सिनेमाई उत्सुकता बनाई और बढ़ाई जा सके। लेकिन इस सीरिज़ को सत्य व्यास के उपन्यास से ‘प्रेरित’ कहने की बजाय उस पर ‘आधारित’ कहा जाता तो ज़्यादा सही लगता। आखिर कहानी की नींव, उस नींव के मज़बूत पत्थर तो ‘चौरासी’ से ही आए न। और नाम ‘ग्रहण’ ही क्यों? ‘चौरासी’ रखते तो ज़्यादा जुड़ाव होता।

इस सीरिज़ के लेखकों की इस बात के लिए तारीफ बनती है कि उन्होंने उपन्यास की मूल कहानी को पटकथा में बदलते समय इसमें राजनीतिक दलदल, व्यवस्था के दबावों को दिखाने के अलावा सस्पैंस और थ्रिल के एलिमेंट्स तो डाले लेकिन कहानी की आत्मा में मौजूद मनु व ऋषि के प्यार में खलल नहीं पड़ने दिया। सच कहूं तो इस कहानी में वही पल सबसे प्यारे लगते हैं जब मनु और ऋषि संग होते हैं। इनकी चुहल आपको गुदगुदाती है तो इनके प्यार की खुशबू आपको महकाती है। इनका दुख आपको भी भीतर तक कचोटता है। इनके मिलन की कंटीली राह देख कर कई बार आंखें नम होती हैं और आखिरी एपिसोड में जब आप अपनी आंखों से बहते पानी को रोकने की नाकाम कोशिश करते हैं तो मन होता है कि इस सीरिज़ को देखते समय हुई सारी भूल-चूक माफ कर दी जाएं।

जी हां, भूलों और चूकों से परे नहीं है यह सीरिज़। लिखने वालों को अब यह आदेश हो चुका है कि कहानी को कम से कम आठ एपिसोड तक तो ले ही जाओ। और जब इस किस्म के बेजा दबाव हों तो कहानी में से निकलते हैं वे गैरज़रूरी सिरे जो उसे यहां-वहां भटकाते हैं। डी.एस.पी. विकास मंडल की कहानी, हिन्द नगर की कहानी, पत्रकार की पत्नी वाली कहानी जैसी कई ऐसी चीज़ें हैं इसमें जिनसे बच कर इसे ज़्यादा कसा और करारा बनाया जा सकता था। सातवां एपिसोड तो निहायत ही बेवकूफाना-सा महसूस होता है। कई जगह रफ्तार बेवजह सुस्त पड़ती है तो कहीं लंबे-लंबे सीन बेचैन करने लगते हैं। एक बड़ी चूक यह भी लगती है कि इस कहानी में अच्छे लोग मात खाते हैं और बुरे जीतते जाते हैं। इससे दर्शक का मनोबल टूटता है। समाज के नायकों के प्रति दर्शकों का विश्वास बनाए रखना भी ऐसी कहानियों का फर्ज़ है और लेखक मंडली यह नहीं कर पाई है।

किरदारों को कायदे से गढ़ा गया है और उन किरदारों के लिए माकूल कलाकार चुन कर समझदारी दिखाई गई है। ऋषि बने अंशुमान पुष्कर बेहद प्रभावित करते हैं। उनकी भाव-भंगिमाओं और संवाद अदायगी में सहजता उन्हें विश्वसनीय बनाती है। बाद में पवन मल्होत्रा जैसे कलाकार ने आकर इस किरदार को ऊंचाइयां ही बख्शी हैं। वैसे भी पवन अभिनय का चलता-फिरता इंस्टीट्यूट हैं। मनु बनीं वामिका गब्बी बेहद प्यारी, मासूम लगी हैं। कोंकणा सेन शर्मा वाली फिल्म ‘अमु’ से प्रेरित अमृता बनीं ज़ोया हुसैन प्रभावी काम करती हैं। हालांकि अपने प्रेमी के साथ वाला उनका ओपनिंग सीन बहुत खराब बनाया गया। उससे बचा जा सकता था। सहीदुर रहमान, टीकम जोशी, सत्यकाम आनंद समेत बाकी के तमाम कलाकार भी जंचे। लोकेशन और सैट्स बहुत प्रभावी रहे। 84 के वक्त को हल्के सीपिया रंग में दिखाना असरकारी रहा। कुछ एक जगह संवाद बहुत मारक हैं। कॉस्ट्यूम, कैमरा, बैकग्राउंड म्यूज़िक इस कहानी के असर को गहरा करता है। हालांकि आर्ट वालों से कहीं-कहीं हल्की चूकें भी रहीं जिन्होंने छठ के अगले दिन पूरा चांद दिखा दिया। उल्लेखनीय है इस सीरिज़ का गीत-संगीत। आमतौर पर वेब-सीरिज़ में इस किस्म के गाढ़े, गहरे गीत नहीं होते। इन्हें सुनते हुए फड़कन होती है।

यह सीरिज़ पहली फुर्सत में देखे जाने लायक है। ताकि यह विलाप खत्म हो कि हमारे पास कहने को अच्छी कहानियां नहीं हैं। ताकि फख्र हो कि समकालीन साहित्य को भी सिनेमा में जगह मिल सकती है। ताकि यह भ्रम दूर हो कि वेब-सीरिज़ में भावनाओं को जगह नहीं मिलती। यह सीरिज़ आपको मनु और ऋषि के प्यार के बहाने से जिन गलियों में ले जाती है वहां आपको ‘वीर ज़ारा’ याद आती है जिसने बताया था कि प्यार सिर्फ प्रियतम को हासिल करने का ही नहीं, उसके नाम को संबल बना कर जीने का भी नाम है। निर्देशक रंजन चंदेल की तारीफ भी होनी चाहिए जो बेहद खूबसूरती के साथ आज और बीते हुए कल के बीच सामंजस्य बनाते हुए इस तरह से कहानी के वर्क पलटते हैं कि कहीं कोई खटका नहीं होता। यह कहानी आपको 84 के पीड़ितों के ज़ख्मों और उन ज़ख्मों से रिसते दर्द से रूबरू करवाती है तो वहीं सिस्टम की हदों और पेचीदगियों को भी दिखाती है। सच तो यह भी है कि मुख्यधारा में इस किस्म की कहानी कहना अगर दुस्साहस है तो उस कहानी को सिनेमा में लाना उससे भी बड़ी हिम्मत का काम। इस हिम्मत को सलाम होना चाहिए।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि सीरिज़ कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-24 June, 2021

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: ‘ग्रहण’‘चौरासी’84anshumaan pushkarchaurasidisney hotstarGrahan reviewpawan malhotraranjan chandelsahidur rahamansatya vyasshailendra jhateekam joshiwamiqa gabbizoya hussain
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