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Home यादें

यादें-गोविंद नामदेव से तब मिलना और अब मिलना

Deepak Dua by Deepak Dua
2017/01/05
in यादें
0
यादें-गोविंद नामदेव से तब मिलना और अब मिलना
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-दीपक दुआ…

1998 की बात है। उन दिनों अपन फिल्म पत्रिका ‘चित्रलेखा’ के साथ जुड़े हुए थे और फिल्म पत्रकारिता की अपनी गाड़ी रफ्तार पकड़ चुकी थी। दिल्ली और दूसरे शहरों में फिल्मों की शूटिंग, प्रेस-कांफ्रैंस और फिल्म संबंधी दूसरी गतिविधियों में आना-जाना भी लगा हुआ था लेकिन मुंबई जाना अभी तक भी नहीं हुआ था। उन दिनों ‘कुबेर टाइम्स’ से जुड़े पत्रकार-मित्र विद्युत प्रकाश मौर्य के साथ प्लान बना कि चल कर कुछ दिन मुंबई में गुजारे जाएं और फिल्म इंडस्ट्री को, फिल्मी दुनिया के लोगों को और वहां के रंग-ढंग को जरा करीब से देखा जाए। और अगस्त, 1998 में एक दिन हम लोग वहां जा पहुंचे।

यह किस्सा हमारे मुंबई-प्रवास के पांचवें दिन का है। उस रोज गणेश चतुर्थी थी यानी वह दिन जब लोग गणपति की मूर्ति की स्थापना करते हैं। सार्वजनिक छुट्टी थी और हम लोग समुद्र के बीच स्थित धारा पुरी टापू पर विश्वप्रसिद्ध एलिफेंटा की गुफाएं देख कर दोपहर बाद मुंबई लौट चुके थे। विले पार्ले स्टेशन पर फिल्म प्रचारक आई.पी.एस. यादव हमारा इंतजार कर रहे थे। उनके साथ हम लोग पहुंचे होटल ‘जाल’ में जो अब फिल्मों और टी.वी. धारावाहिकों की शूटिंग के काम आता था। उस दिन यहां धारावाहिक ‘महायज्ञ’ की शूटिंग चल रही थी। यहां हमारी मुलाकात अभिनेत्री प्रीति खरे और अभिनेता गोविंद नामदेव से हुई। प्रीति से तो हमने लंबी बातचीत की लेकिन गोविंद जी के व्यस्त होने के कारण उनका फोन नंबर लेने और उनके साथ तस्वीर खिंचवाने जितना समय ही मिल पाया। ‘शोला और शबनम’, ‘आंखें’, ‘बैंडिट क्वीन’ और हमारी इस मुलाकात से कुछ ही हफ्ते पहले आई ‘सत्या’ से गोविंद नामदेव की गिनती बेहद प्रभावशाली अभिनेताओं में की जाने लगी थी। हम लोग चलने लगे तो ‘महायज्ञ’ के निर्देशक अनिल चौधरी आए और गुजारिश की कि हम इस सीरियल के एक सीन में गोविंद जी के साथ काम करें। और इस तरह से अपन ने पहली (और अभी तक आखिरी) बार किसी टी.वी. सीरियल के कैमरे का सामना किया। छोटा-सा ही सीन था जिसमें हम लोग खड़े हैं, गोविंद जी आते हैं और हम उन्हें ‘छोटे ठाकुर नमस्ते’ कह कर बाहर की तरफ चल पड़ते हैं।

इस बात को 18 बरस बीत गए और पिछले दिनों गोविंद नामदेव से दिल्ली में मुलाकात हुई। हर साल एक हफ्ते के लिए दिल्ली आकर नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के छात्रों को अभिनय के गुर सिखाने वाले गोविंद अपनी स्क्रीन-इमेज के ठीक उलट बेहद विनम्र और दोस्ताना हैं। 18 बरस पहले की हमारी तस्वीर देख कर वह बहुत खुश हुए और करीब आधे घंटे की मुलाकात में हमने जम कर बातें कीं। इस बातचीत के अलग-अलग हिस्से ढेरों जगह छपे। लीजिए कुछ आप भी पढ़ लीजिएः-

-एक्टिंग की तरफ आपका रुझान कब और कैसे हुआ?
-मैं मध्यप्रदेश के एक छोटे-से शहर सागर का रहने वाला हूं। सातवीं क्लास तक की पढ़ाई मैंने वहां की और उसके बाद हम लोग दिल्ली आ गए थे। यहां स्कूली दिनों से ही नाटकों वगैरह में मेरी रूचि रही और चूंकि मेरा स्कूल मंडी हाउस के करीब ही था तो थिएटर और थिएटर करने वालों को देखते-देखते वह रूचि बढ़ती चली गई और आखिर एक दिन मैंने भी एन.एस.डी. ज्वाइन कर लिया।
-ज्यादातर कलाकार एन.एस.डी. के बाद मुंबई का रुख करते हैं जबकि आप उसके बाद बरसों तक एन.एस.डी. रिपर्टरी से जुड़े रहे। ऐसा क्यों?
-मुझे लगता था कि मेरे अंदर अभी उतनी परिपक्वता नहीं आई है कि मैं मुंबई जाकर वहां वालों को अपना कुछ काम दिखा सकूं। उस समय हमारे कई सीनियर्स थे जो बरसों से यहां रह कर रिपर्टरी में काम कर रहे थे। सुरेखा सीकरी, मनोहर सिंह, उत्तरा बावकर वगैरह को हम परफॉर्म करते हुए देखते तो अवाक रह जाते थे। ये सब लोग छह-सात साल से यहां पर थे और तब मुझे लगा कि अगर इनका स्तर छूना है तो थिएटर में और वक्त गुजारना होगा। 12 साल मैं यहां रहा और जब मुझे लगने लगा कि अब मेरे काम में परिपक्वता आ गई है तब मैंने दिल्ली छोड़ने का इरादा किया।
-मुंबई से कोई बुलावा आया था या आपने खुद ही वहां जाने की ठानी?
-बुलावा नहीं था लेकिन मुझे लगने लगा था कि अगर मैं खुद आगे बढ़ कर कोई निर्णय नहीं लूंगा तो फिर यहीं का होकर रह जाऊंगा। तब तक मेरी पारिवारिक जिम्मेदारियां भी बढ़ गई थीं। दो बेटियां हो चुकी थीं और उनकी ख्वाहिशें भी बढ़ रही थीं। थिएटर से जो मिलता था वह टॉफी बराबर था और टॉफी से आखिर कब तक उन्हें बहलाता।
-लेकिन फिल्म इंडस्ट्री तो समुंदर है। पहली बार पांव रखते हुए मन में यह असमंजस नहीं था कि तैरेंगे या डूबेंगे?
-बिल्कुल नहीं। इतने सालों तक जो थिएटर मैंने किया था, जिस लेवल का आत्मविश्वास मेरे अंदर आ चुका था तो असमंजस की तो कोई गुंजाइश ही नहीं थी।
-आपने निगेटिव किरदार ही ज्यादा निभाए हैं। आपको नहीं लगता कि इन किरदारों ने आपकी प्रतिभा को एक खांचे में सीमित करके रख दिया?
-मैंने जान-बूझ कर निगेटिव किरदारों को चुना। दरअसल मैं नहीं चाहता था कि मुझे फिल्मों में कोई ऐसा-वैसा किरदार निभाते हुए देख कर कोई यह सोचता कि यह इंसान इतने मामूली रोल के लिए मुंबई चला गया। हिन्दी फिल्मों में सिर्फ तीन ही किरदार पहली कतार में होते हैं-हीरो, हीरोइन और खलनायक। हीरो वाला मामला मेरे साथ था नहीं तो मैंने जान-बूझकर खलनायक वाला रास्ता चुना।
-आपके निभाए ये किरदार काफी वास्तविक-से लगते हैं। कैसे आप इतनी गहराई तक जाकर इन्हें पकड़ पाते हैं?
-किरदारों को निभाने से पहले हमें इनके बारे में जो बताया जाता है उनसे हट कर मेरा अपना रिसर्च वर्क भी रहता है। जैसे ‘विरासत’ में मेरा लकवाग्रस्त व्यक्ति का रोल था। इससे पहले मैं एक टेलीफिल्म ‘ज्योति बा फुले’ कर चुका था जिसमें ज्योति बा को भी आखिर में जाकर लकवा लग जाता है। तब मैंने ऐसे लोगों को करीब से देखा जिनमें से एक डॉक्टर भी थे। उनसे मेरी लंबी चर्चा हुई कि एक लकवाग्रस्त इंसान कैसे सोचता है, कैसे वह अपनी बात और अपनी भावनाओं को सामने वाले तक पहुंचाने के प्रयास करता है।
-फिल्म इंडस्टी में इतना लंबा समय गुजारने के बावजूद आपने कम ही काम किया। इसकी क्या वजह रही?
-वजह यही थी कि मुझे सिर्फ अच्छा काम करना था। ऐसा काम करना था जिसमें मैं अपनी ओर से कुछ नया दे सकूं। अगर मैं अपने पास आने वाला हर काम करता चला जाता तो अब तक खत्म हो चुका होता।

भारतीय रेल की पत्रिका ‘रेलबंधु’


-आप अभिनय पढ़ाते भी हैं। वे कौन-सी चीजें हैं जो आप अपने विद्यार्थियों को सबसे ज्यादा सिखाते हैं?
-ऑब्जरवेशन और रिसर्च-वर्क। इन दो चीजों के बिना आप अपने काम में नयापन नहीं ला सकते।
-आपके पुराने साथियों में कइयों ने निर्देशन का भी रास्ता पकड़ा। कभी आपका मन नहीं हुआ डायरेक्टर बनने का?
-नहीं, कभी सोचा ही नहीं कि एक्टिंग से हट कर भी कुछ करना है। हां, यह भी है कि जीवन भर एक्टिंग भी नहीं करनी है। जल्द ही ऐसा वक्त आएगा जब मैं अभिनय को थोड़ा किनारे करके अभिनय सिखाने पर ज्यादा ध्यान देने लगूंगा। मेरा मन है कि जो ज्ञान मैंने अर्जित किया है, उसे मैं बांट कर जाऊं।
-इस दिशा में प्रयास भी हो रहे हैं?
-बिल्कुल हो रहे हैं। हर साल एन.एस.डी. आकर एक हफ्ते के लिए नई पीढ़ी से रूबरू होना भी इसी का हिस्सा है। अपनी छोटी बेटी की शादी के बाद मैं सक्रिय एक्टिंग को छोड़ कर अपने गृह-प्रदेश मध्यप्रदेश में एक एक्टिंग स्कूल खोलने का इरादा रखता हूं। कभी कोई फिल्म करनी होगी तो वहीं से आकर करूंगा।

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: यादें
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