-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
श्रीनगर के एयरबेस पर भारतीय वायु सेना के चुने हुए जाबांज़ पायलट इक्ट्ठा किए गए हैं। कुछ ‘बड़ा’ होने वाला है। इन लोगों में एक भरपूर एट्टियूड वाला हीरो है तो एक खूबसूरत हीरोइन भी। सैकुलर दिखने के लिए एक मुस्लिम है और मज़ाक बनाने के लिए एक सिक्ख। एक कड़क कमांडिंग अफसर भी है। इससे पहले कि ये लोग कुछ करें, पाकिस्तान वाले कुछ ‘बड़ा’ कर के निकल लेते हैं। ये लोग बदला लेकर आते हैं तो पाकिस्तान फिर भारत में घुस कर तबाही मचा देता है और इनके दो पायलट भी घेर कर ले जाता है। तो क्या अब ये लोग क्लाइमैक्स में बड़ा एक्शन करेंगे…!
इस फिल्म के लेखकों में से एक रमन छिब के पिता एयर फोर्स में रहे हैं और वह खुद भी आर्मी में रह चुके हैं तो उनके लिए इस कहानी को लिखना आसान रहा होगा। रमन इस फिल्म के निर्माताओं में भी शामिल हैं और कुछ दृश्यों के निर्देशक भी रहे हैं। निर्देशक सिद्धार्थ आनंद को मसालेदार, भव्यता से भरपूर फिल्में बनाने का हुनर आता है। ऐसे में इन लोगों ने पर्दे पर जो संसार रचा है वह लुभाता है। लेकिन सिर्फ लुभावना होना ही तो बेहतर होने की गारंटी नहीं होता न…!
गौर करें तो इस फिल्म की कहानी एक बहुत ही साधारण विचार के इर्द-गिर्द बुनी हुई दिखती है। कुछ वीरों की टोली, उनकी हंसी-ठिठोली। दो लोगों में प्यार, किसी वजह से तकरार। किसी एक का बलिदान, बाकी का जुटान। थोड़ी हंसी, थोड़े आंसू, कभी खुशी, कभी गम और अंत भला तो सब भला। ये सब दरअसल फॉर्मूले हैं जो ‘बॉलीवुड’ हमें दशकों से घोल कर पिलाता आया है। अब कहने को इस किस्म की फिल्में भव्यता और एक्शन के मामले में हॉलीवुड को टक्कर देने का दम भरती हैं लेकिन कथ्य के स्तर पर आकर जब यह पिलपिली हो उठती हैं तो मन सवाल पूछता है कि हिन्दी के मुख्यधारा सिनेमा के पास क्या सचमुच कुछ दमदार नहीं बचा है? बलिदान मुस्लिम किरदार ही देगा और मज़ाक सिक्ख किरदार का ही बनाया जाएगा-क्या ऐसे फॉर्मूलों से ‘बॉलीवुड’ को अब ऊपर नहीं उठ जाना चाहिए…।
वैसे यह फिल्म ‘देखने’ में बुरी नहीं है। हवाई-एक्शन के दृश्य अपनी तेज़ गति और कोरियोग्राफी के चलते लुभाते हैं। आपको अहसास भी नहीं होता कि इन्हें वीएफएक्स से तैयार किया गया है। किरदारों की आपसी चुहलबाज़ियां अच्छी लगती हैं। नायक-नायिका का धीमा रोमांस प्यारा लगता है। लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म ऐसा नोज़-डाइव लेती है कि आप कुलबुलाने लगते हैं। यह तो भला हो क्लाइमैक्स में आए एक्शन-सीक्वेंस का, जो इसे फिर से टेक-ऑफ करवा कर सही तरह से लैंड करा देता है वरना…!
हृतिक रोशन अपने किरदार के एटिट्यूड को बड़ी ही सहजता से कैरी करते हैं। दीपिका पादुकोण मन भर लुभाती हैं। इन दोनों की आपसी कैमिस्ट्री उम्दा रही है। लेकिन इनकी टीम में बाकी के सारे कलाकार जान-बूझ कर ऐसे लिए गए जो बहुत ज़्यादा मशहूर और इतने काबिल न हों कि इन पर भारी पड़ जाएं। अनिल कपूर अपने कड़क किरदार को पूरे कड़कपन से निभाते हैं। दो सीन में आए आशुतोष राणा बता जाते हैं कि असर छोड़ने के लिए किरदार की लंबाई नहीं, अभिनय में गहराई ज़रूरी होती है। आतंकवादी बने ऋषभ साहनी खौफनाक नहीं लग सके। लोकेशन, कैमरा वर्क गजब रहा है। इंटरवल के बाद के कुछ सीन गैरज़रूरी तौर पर लंबे हैं। फिल्म के कई सीन इतने हल्के हैं कि बचकाने लगते हैं। कुछ संवाद अच्छे हैं तो कुछ बहुत ही घिसे-पिटे ‘फिल्मी’ किस्म के। और हां, स्क्रिप्ट भले ही रोमन में लिखें, अपने कलाकारों से ‘राथौड़’ की बजाय ‘राठौड़’ तो बुलवा ही सकते हैं ये फिल्म वाले…! एक-दो गाने अच्छे हैं, बाकी के साधारण। मदमाते सीन वाला गाना ‘इश्क जैसा कुछ…’ फिल्म में है ही नहीं।
इस फिल्म को इसकी ‘मसालेदार’ लुक, ताबड़तोड़ हवाई-एक्शन, हृतिक रोशन के चार्म, दीपिका पादुकोण के चौंधियाते क्लीवेज और मदमाते सौंदर्य के लिए देखिए। लेकिन इसे देखते हुए दिमाग पर ज़ोर मत डालिएगा वरना वह सवाल पूछेगा-आखिर किस ‘बड़े’ काम के लिए देश भर से चुन कर हवाई-वीरों को श्रीनगर बुलाया गया था? देश का बैस्ट फाईटर पायलट इतना उद्दंड और अकड़ू क्यों है? और वही अकेला ही वीर, जांबाज़ है क्या? क्या एयर फोर्स वाले अपने सीनियर्स का कहना नहीं मानते? क्या वे मनमानियां करना चाहते हैं और अगर न करने दी जाएं तो रिटायरमैंट लेने की बातें करने लगते हैं? और एयर फोर्स के सीनियर्स फैसले लेते समय प्रैक्टिकल क्यों नहीं होते? क्या सिर्फ एक आतंकवादी पूरी पाकिस्तान सेना को चला रहा है? और क्या पाकिस्तान वाले साज़िशें रचने और भारत में घुस कर उन्हें अमल में लाने में ज़्यादा उस्ताद हैं? जी हां, कॉपी-पेन लेकर बैठें तो फिल्म में मरने वाले भारतीय जवानों की गिनती ज़्यादा निकलेगी।
अपनी लुक, 26 जनवरी के मौके और खाली पड़े बाज़ार के चलते यह फिल्म नोट भले ही कमा ले, लेकिन सच यह है कि भारतीय वायु सेना के शौर्य को दिखाने के इरादे से बनाई गई यह फिल्म हमारी सेना और उसके वीरों की गरिमा को कम ही करती है। रक्षा मंत्रालय यदि ऐसे विषयों पर बनने वाली किसी फिल्म के बनने से पहले स्क्रिप्ट और बनने के बाद फिल्म आदि देखता है तो उसे और ज़्यादा सतर्क रहने की ज़रूरत है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-25 January, 2024 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Producer ko bhartiya vayusena se deep discussion krne ke bad movie bnani chahiye thi
Tabhi society ko kuch accha mil pata
Aise entertainment ke liye internet pe bhut kabad h
Baki apke reviews hamesha se hi super duper👏👏👏👏
धन्यवाद
रिव्यु पूर्ण रूप से परिपूर्ण है… कोई शक्ति नहीं…
लेकिन फ़िल्म. तो फ़िल्म. है… फिल्मों में ऐसा ही दिखाया जाता है जो असल. में *असल*. में होता ही नहीं है….. अगर सभी सम्बंधित विभाग और मंत्रालय सभी फिल्मों का आंकलन करने लगे तो ये बॉलीवुड वालों को दर्शकों को लुभाने क़े लिए मसाला लहान से मिलेगा…
चाहे इतिहास पर बनने वाली फ़िल्में या रोजमर्रा कि ज़िन्दगी को. लेकर बनने वाली फ़िल्में….
सही… कहा है आपने….हर फ़िल्म को देश से जोड़ना…. या देशभक्ति दिखाना.. ज़रूरी नहीं….. मरने वाला किसी भी मज़हब का हो…. अगर बॉलीवुड वाले मसालेदार स्टोरी नहीं बनाएंगे तो फिर फ़िल्में देखेगा कौन…
धन्यवाद
ट्रेलर दिखाना ऐसा है जैसे मिट्टी पर मिट्टी से मिट्टी लिखना लेकिन एक कसी हुई फिल्म बनाना ऐसा है जैसे पानी पर पानी से पानी लिखना 🤣 कहां इसको हॉलीवुड की टॉप गन जैसा बोला जा रहा था। एक तो हम बहुत जल्दी comparative हो जाते हैं जिसका नतीजा होता है की एवरेज फिल्म और बदतर लगती है।वैसे रितिक के सुंदर नैन नक्श देखने के लिए उनके पंखा लोग तो जइबे करेंगे बाकी वन टाइम वॉच तो लग ही रही है तो जल्दी ही इसका 100cr या 150cr का केक कटते हुए देखेंगे।
बिल्कुल सही कहा…😊