-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
एक लड़का है जो लड़की की आवाज़ निकाल सकता है। कोई और नौकरी नहीं मिलती तो एक फ्रेंडशिप कॉल सेंटर में पूजा बन कर लोगों का दिल बहलाता है और उनका बिल बढ़ाता है। पर उलझनें तब बढ़ती हैं जब उसके दीवाने उससे शादी करने और उसके लिए मरने-मारने पर उतर आते हैं। अब यह सच वह किसी को बता नहीं सकता कि कइयों की ड्रीमगर्ल यह पूजा असल में कोई दूजा है।
हिन्दी फिल्में अब ’हटके’ वाले विषयों पर काफी ज़्यादा और खुल कर बात करने लगी हैं। कल तक जिन टॉपिक्स को टैबू माना जाता था अब फिल्म वाले चुन-चुन कर उनके इर्द-गिर्द कहानियां बुन रहे हैं। आयुष्मान खुराना ऐसी फिल्मों के लिए मुफीद चेहरा बन चुके हैं। लेकिन दिक्कत तब आती है जब इन कहानियों को कहने में गहरी रिसर्च नहीं की जाती, गहराई से मेहनत नहीं होती और नतीजे के तौर पर ऐसी कच्ची-पक्की फिल्में सामने आती हैं जिनमें सब कुछ होते हुए भी लगता है कहीं नमक कम रह गया तो कहीं आंच हल्की पड़ गई। अगर चीज़ें सधी रहें तो नतीजा ’विकी डोनर’ और ’बधाई हो’ होता है नहीं तो ’शुभ मंगल सावधान’ और ’ड्रीम गर्ल’, जो अच्छी होते हुए भी गाढ़ी नहीं होती हैं।
इस फिल्म की कहानी को फैलाने में जो स्क्रिप्ट खड़ी की गई है उसमें कच्चापन है। लोग पूजा के ही दीवाने क्यों हुए, बरसों से वहां काम कर रही बाकी लड़कियां वहां क्या सिर्फ मटर छीलने और स्वेटर बुनने ही आती थीं? फिल्म बार-बार कहती है कि दुनिया में बहुत अकेलापन है इसीलिए लोग फोन फ्रेंडशिप करते हैं। लेकिन इस बात को फिल्म स्थापित नहीं कर पाती क्योंकि पूजा के ज़्यादातर दीवाने अकेले हैं ही नहीं। किरदारों का ठीक से न गढ़ा जाना फिल्म का स्तर हल्का बनाता है तो वहीं कुछ एक सीक्वेंस बेमतलब के लगते हैं। जब बूढ़े मियां पूजा से मिल कर दिल तुड़वा कर लौट आए तो मामला खत्म होना चाहिए था लेकिन उनका बेटा उन्हें और भड़का रहा है कि जाओ, शादी कर लो पूजा से।
इस फिल्म से पहली बार निर्देशक बने राज शांडिल्य ‘कॉमेडी सर्कस’ के सैंकड़ों एपिसोड लिख चुके हैं इसलिए उन्हें इतना तो पता है कि कहानी में नमक-मसाला कैसे लगाना है लेकिन दिक्कत यही है कि यह अच्छी-भली कहानी नमक-मसाले में लिपट कर चटपटी तो बन गई, पौष्टिक नहीं बन पाई। इसे देखते हुए आप एन्जॉय तो करते हैं लेकिन यह दिल को नहीं छूती। घिसे-पिटे कॉमिक-पंचेस को भौंडे बैकग्राउंड म्यूज़िक में लपेट कर दर्शकों को हंसाने की कोशिशें कुछ एक जगह ही रंग लाती हैं, बाद में दोहराव का शिकार होकर बोर करने लगती हैं। क्लाइमैक्स में ‘जाने भी दो यारों’ की तरह भगदड़ हो जाती तो मज़ा कई गुना बढ़ जाता।
आयुष्मान खुराना, मनजोत सिंह, राजेश शर्मा, विजय राज़ वगैरह का काम बढ़िया है तो वहीं नुसरत भरूचा को कायदे का रोल ही नहीं मिल सका। सब पर छाने का काम किया अन्नू कपूर ने। खासतौर से स्थानीय ब्रज बोली पकड़ने में उनकी मेहनत झलकती है। गाने फिल्म के मिज़ाज के मुताबिक चटपटे हैं-भले ही मथुरा की कहानी में पंजाबी गाना आपको मिसफिट लगे तो लगे-हम तो बेमकसद पंजाबी गाने भी परोसेंगे और बेवजह दारू के सीन भी।
फिल्म में हरियाणवी पुलिस वाले के किरदार में विजय राज़ अक्सर ‘सायरी’ सुनाते हैं। उनके ‘सेर’ दिल को तो भाते हैं, दिमाग को नहीं। ऐसी ही यह फिल्म भी है-वन टाइम वॉच या कहें कि टाइम पास किस्म की।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-13 September, 2019
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)