-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
पहले इसी फिल्म से एक दुख भरी दास्तान सुनिए-‘‘एक बार एक नवजात कुत्ते ने अपनी मां से पूछा कि पिताजी कैसे दिखते थे? इस पर मां ने मायूसी से कहा-पता नहीं बेटा, एक दिन वह पीछे से आए और चुपचाप पीछे से ही चले गए। रॉ (भारत की खुफिया एजेंसी) वही पिताजी है।’’
यह सही है कि दुनिया की तमाम खुफिया एजेंसियों की तरह अपनी रॉ भी देश-दुनिया में बहुत कुछ ऐसा करती है जो या तो तुरंत सामने नहीं आता या फिर उसमें रॉ और उसके एजेंटों का ज़िक्र नहीं होता। हमारी फिल्मों ने गाहे-बगाहे हमारे इन जासूसों के कारनामें पर्दे पर उतारे हैं। यह फिल्म भी उसी दिशा में एक कोशिश है-अच्छी, कसी हुई, मनोरंजक।
फिल्म का आवरण 1978 से 1984 के दौर का है जब पाकिस्तान की शह पर भारत के कई हिस्सों में अलगाववादी गुट सक्रिय थे और भारतीय हवाई जहाजों को हाइजैक करना रोज़मर्रा की बात हो चुकी थी। उन्हीं कुछ हाईजैक से प्रेरित इस कहानी में एक आम आदमी के रॉ एजेंट बनने और फिर विदेश जाकर अपने एक हाईजैक को फेल करने के ताने-बाने बुने गए हैं।
इस किस्म के फ्लेवर वाली कहानियां इधर काफी आने लगी हैं। इन्हें पसंद भी किया जाता है क्योंकि एक तो ये दर्शकों को खुफिया एजेंटों की उस दुनिया में ले जाती हैं जिसके बारे में हमें आमतौर पर कुछ पता नहीं चल पाता। दूजे, ऐसी फिल्मों में देशहित के किसी ऑपरेशन को अंजाम देने का कसाव और उसके साथ-साथ देशभक्ति की भावना का बहाव भी होता है। दो-ढाई घंटे के मनोरंजन की चाह रखने वाले एक आम दर्शक के लिए इतना भर काफी होता है और इसीलिए ऐसी फिल्में अगर ज़रा भी ठीक-ठाक ढंग से बनी हों तो पसंद कर ली जाती हैं। यह फिल्म भी इस कतार में जगह बना चुकी है जिसमें अपेक्षित तनाव भी है और दर्शक को बांधे रखने का दम भी।
हालांकि अपने कलेवर में यह फिल्म अक्षय की ही ‘बेबी’ सरीखी लगती है। उसी की तरह इसमें भी विदेशी धरती पर एक ऑपरेशन है, अक्षय कुमार टीम का अगुआ है, बीवी से झूठ बोल कर गया है, वहां के हालात में उलझा है लेकिन कामयाब होकर लौटता है। फर्क यह है कि इस बार वक्त चार दशक पहले का है जब तकनीकी मदद ज़्यादा नहीं होती थी और एजेंटों को अपने दिमाग व बाहुबल से काम लेना होता था। इनकी इसी पैंतरेबाजी से ही फिल्म में कसावट आई है और मनोरंजन की खुराक में भी इजाफा हुआ है।
एक छोटी-सी कहानी पर रोचक पटकथा रचने के लिए लेखक लोग सराहना के हकदार हैं। नायक के परिवार, भाई, मां आदि को भी सहजता से कहानी का हिस्सा बनाया गया है। निर्देशक रंजीत तिवारी इससे पहले ‘लखनऊ सैंट्रल’ जैसी कमज़ोर फिल्म दे चुके हैं लेकिन इस बार उन्होंने अपना स्तर उठाया है। हालांकि वह और उनका आर्ट-डिपार्टमैंट गहराई से रिसर्च न कर पाने के चलते ढेरों गलतियां भी दिखा गया। मसलन 1983 के साल में दिल्ली में वाहनों पर सफेद नंबर प्लेट नहीं होती थी, न ही नॉर्थ ब्लाक के बाहर ‘दिव्यांग’ वाला बोर्ड होता था, 1978 में भारत में कोका कोला बैन हो चुकी थी, कलर टी.वी. अभी आया नहीं था और दूरदर्शन के नाम के साथ ‘नेशनल’ नहीं जुड़ा था। खैर, जब सीक्वेंस कसे हुए हों तो ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए।
अक्षय कुमार अपने चेहरे पर झलकने लगी उम्र के बावजूद जंचते हैं। इंदिरा गांधी बनीं लारा दत्ता मेकअप के चलते पहचानी नहीं जातीं लेकिन उम्दा काम करती हैं। डॉली आहलूवालिया चुलबुली, प्यारी, पंजाबन मम्मी के रोल में लुभाती हैं। बरसों बाद मामिक को अक्षय के बड़े भाई के रोल में देखना अच्छा लगा। डेंज़िल स्मिथ चुप रह कर भी असरदार रहे। आदिल हुसैन बताते हैं कि क्यों वह अभिनय के मास्टर हैं। थोड़ी देर को आईं हुमा कुरैशी सही लगीं। वाणी कपूर ने सुंदर और आकर्षक लगना था, सो लगीं। गाने अच्छे हैं और लोकेशन व कैमरा भी। बैकग्राउंड म्यूज़िक अपने रेट्रो फील के चलते असर छोड़ता है। फिल्म कई जगह अपने सीक्वेल के लिए खुले सिरे भी छोड़ती है। तैयार रहिए। लेकिन उससे पहले इसे देख लीजिए जो अभी सिर्फ थिएटरों में आई है, 2-डी और 3-डी में भी। कुछ दिन बाद यह अमेज़न प्राइम पर आएगी।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-19 August, 2021
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)