-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
एक लड़की है, सुंदर, जवान, स्कूल में पी.टी. टीचर, शादी के लायक। लेकिन दिक्कत यह है कि उसे लड़कों में कोई दिलचस्पी ही नहीं है। समझ गए न आप…! एक लड़का है, हट्टा-कट्टा, बॉडी बिल्डर टाइप, पुलिस की नौकरी, शादी की उम्र। यहां दिक्कत यह है कि उसे लड़कों में ही दिलचस्पी है। अब तो आप समझ ही गए होंगे। तो ये दोनों मिले और तय किया कि आपस में शादी कर लेते हैं। घरवालों की चिकचिक खत्म हो जाएगी, रहेंगे एक साथ मगर तू तेरे बिस्तर, मैं मेरे बिस्तर। लेकिन हमारे समाज और घरों में इस तरह की शादियां स्मूथली चल कहां पाती हैं।
हाल के बरसों में सिनेमा ने एल.जी.बी.टी. यानी समलैंगिक, ट्रांसजेंडर वगैरह-वगैरह किरदारों को मुख्यधारा के सिनेमा में खुल कर जगह देनी शुरू की है। उधर हमारे समाज में भी इन लोगों की मुखर मौजूदगी दिखनी शुरू हुई है। लेकिन सच यही है कि जहां समाज में ये लोग अभी भी अपने समुदाय के बीच ही खुल पा रहे हैं और एक बड़ा तबका इनसे, इनके ज़िक्र तक से बचता है, वहीं सिनेमा में भी ऐसे विषय उठाना दुस्साहस ही माना जाता है। हिन्दी वाले फिल्मकार डरते-डरते ही सही, ऐसे दुस्साहस कर रहे हैं। इन कोशिशों में कभी ये लोग फिसल जाते हैं तो कभी ‘शुभ मंगल ज़्यादा सावधान’ या ‘चंडीगढ़ करे आशिक़ी’ जैसे संभले हुए प्रयास भी सामने आ जाते हैं। यह फिल्म भी संभली हुई है क्योंकि यह एक बहुत ही नाज़ुक मुद्दे को संभल कर, संभाल कर सामने लाती है।
शार्दूल और सुमन ने शादी तो कर ली और अपनी-अपनी ज़िंदगी अपने-अपने स्टाइल से जी भी रहे हैं लेकिन दोनों के घरवालों को तो इनकी सच्चाई नहीं पता न! साल भर हो गया, उन्हें तो अब बच्चा चाहिए। मगर ये दोनों तो एक-दूसरे के करीब भी नहीं जाते। और दुस्साहस तो तब सफल माना जाए न जब ये अपनी सच्चाई घरवालों को बताएं। पर क्या इनके घरवाले इनकी इस ‘बीमारी’ को स्वीकार कर पाएंगे?
सुमन अधिकारी, अक्षत घिल्डियाल और हर्षवर्द्धन कुलकर्णी ने बड़े कायदे से इस कहानी को फैलाया है और अंत में सलीके से समेटा भी है। यह विषय कहीं फैल, फिसल, फट न जाएं इसका भी उन्होंने ध्यान रखा है। कहानी को फैमिली, रिश्तों और कॉमेडी के आवरण में लपेटते समय इन्होंने यह भी ख्याल रखा है कि यह कहीं अश्लील या भौंडी न हो जाए। ऐसे विषय में भी दर्शकों को मनोरंजन मिले, उपदेश या सनसनी नहीं, इसका ख्याल भी लेखकों के साथ-साथ निर्देशक हर्षवर्द्धन बखूबी रखते हैं और यहीं आकर इनकी मेहनत सफल व सार्थक दिखती है।
इस किस्म की फिल्म में किरदार अतरंगी रखने पड़ते हैं ताकि दर्शक उनसे जुड़ा रहे। लड़के की खोई-खोई रहने वाली मां, हक जमाती ताई, चटपट बहन, मुंहफट जीजा हैं तो वहां रोज सुबह मौनव्रत रखने वाली लड़की की मां भी दिलचस्पी बनाए रखती है। सीमा पाहवा, शीबा चड्ढा, नितेश पांडेय, लवलीन मिश्रा जैसे सधे हुए कलाकार इन किरदारों में रंगत भरते हैं। राजकुमार राव और भूमि पेडनेकर तो अपने किरदारों में रचे-बसे हैं ही, गुलशन देवैया और चुम दरांग भी खूब साथ निभाते हैं। गाने अच्छे हैं और कहानी से जा मिलते हैं। देहरादून की पृष्ठभूमि भी कहानी को जंचती है और संकेत करती है कि समलैंगिक लोग कहीं भी हो सकते हैं।
लेकिन फिल्म में कमियां भी हैं। सबसे बड़ी कमी तो यह है कि यह भटकने लगती है। समलैंगिकता वाले विषय से हट कर यह बच्चे वाले ट्रैक पर जाती है तो फिर वहीं की होकर रह जाती है। कई जगह इसकी गति भी सुस्त पड़ती है और इसकी ढाई घंटे की लंबाई तो खैर अखरने वाली है ही। ऐसे विषयों पर दो-टूक बात दो घंटे से कम में कह देनी चाहिए।
फिल्म का अंत सुखद है लेकिन सवाल छोड़ जाता है कि अपनी समलैंगिकता का खुल कर प्रदर्शन करने वाले ये किरदार क्या फिल्म खत्म होने के बाद उस समाज, शहर में खुल कर जी पाए? स्कूल वालों ने उस टीचर को और पुलिस वालों ने उस सब-इंस्पैक्टर को चैन और इज़्ज़त से नौकरी करने दी? क्या पता!
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-11 February, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
बधाई दे दी रिव्यु के लिये 😊
धन्यवाद
Badhai to bnati h
हर बार की तरह रिव्यू बेहतरीन होता ही है आपका, आपके रिव्यू से तो फिल्म ही देखी जाती है …आपने रिव्यू किया नहीं तो कल गलती से खुद ही गहराईयां देख बैठी और उस मूवी के रूप में shock treatment ले लिया ….😊
😂😂😂