-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
मुंबई फिल्म इंडस्ट्री की एक असिस्टैंट डायरेक्टर एक खूंखार गैंगस्टर बच्चन पांडेय पर फिल्म बनाने के लिए उत्तर प्रदेश के एक कस्बे में जा पहुंचती है। लेकिन बच्चन पांडेय की तो कोई कहानी ही नहीं है। उसे तो बस लोगों को मारने में मज़ा आता है। बहुत मशक्कत के बाद वह अपनी रिसर्च तो पूरी कर लेती है लेकिन क्या वह अपनी फिल्म बना पाती है? और अगर हां, तो क्या वह उसमें सच दिखा पाती है? और सबसे बड़ा सवाल, क्या वह फिल्म बच्चन पांडेय को पसंद आती है?
कहने को यह एक तमिल फिल्म का रीमेक है। उसी तमिल फिल्म का जो खुद एक कोरियन फिल्म का रीमेक थी और बाद में जिसके तेलुगू और कन्नड़ में भी रीमेक बने। इस फिल्म और इसमें अक्षय कुमार का नाम उन्हीं की ‘टशन’ में उनके निभाए किरदार से लिया गया है। फिल्म में उनका भौकाल भी तगड़ा है, एकदम ‘शोले’ के गब्बर और ‘चाइना गेट’ के जगीरा की तरह। बैकग्राउंड म्यूज़िक से ऐसा बनाने की भरसक कोशिशें भी हुई हैं। पर क्या ये कोशिशें सफल हो पाईं?
ओरिजनल फिल्म की कहानी तो बुरी नहीं ही होगी। होती तो इतनी सारी भाषाओं में उसके रीमेक नहीं बनते और निर्माता साजिद नाडियाडवाला भी इसके अधिकार खरीदने पर पैसा नहीं लगाते। दिक्कत फिल्म की स्क्रिप्ट के साथ है। यकीन नहीं होता कि सात लेखकों ने मिल कर यह स्क्रिप्ट लिखी है। फिल्म देखिए तो साफ लगता है कि इन लेखकों ने ईंट और रोड़े इक्ट्ठे कर के साजिद को दिए होंगे कि लो भाई, अब भानुमति का कुनबा जोड़ लो। इतने छेद तो पूरी फिल्म में बच्चन पांडेय की गोलियों ने अपने दुश्मनों के बदन में नहीं किए होंगे जितने इस फिल्म की स्क्रिप्ट में हैं। तरस आता है इसे लिखने वालों की बुद्धि पर, और शर्म आती है कि ये लेखक हमारी फिल्म इंडस्ट्री के नामी लोगों में गिने जाते हैं। हिन्दी फिल्मों के लगातार हो रहे सत्यानाश के लिए ये भी कम ज़िम्मेदार नहीं हैं।
लड़की उत्तर प्रदेश के जिस कस्बे में गई है वहां मराठी उपनाम वाला का एक कलाकार रहता है। इस कस्बे के लोग अपनी सहूलियत से हिन्दी, भोजपुरी, अवधी, राजस्थानी बोलते हैं। कस्बा भी अपने-आप उछल कर कभी-कभी राजस्थान में चला जाता है। बच्चन पांडेय उत्तर प्रदेश में लाल चंदन की तस्करी करता है, ऐसा बताया गया है, दिखाया नहीं गया। लाल चंदन, उत्तर प्रदेश में…! हंस लीजिए। हीरोइन चुपचाप मार खाती है और जब पांडेय की हथौड़ी उसके सिर से आधा इंच दूर होती है, तब सच बोलती है। अंत में तो कुछ बोलती ही नहीं। छोड़िए, इतनी सारी चूक निकाल कर भी हम-आप भला क्या कर लेंगे। ये लोग अपनी स्क्रिप्ट तो हमें पढ़वाने से रहे। वैसे भी जो निर्माता प्रचार पर करोड़ों खर्च करने के बाद प्रैस के लिए शो तक न करे तो समझ लेना चाहिए कि वह कंजूस नहीं, डेढ़ सयाना है। उसे पता है कि पब्लिक को तो वह ट्रेलर दिखा कर फांस ही लेगा। तो जाइए, फंसिए।
कहने को इस फिल्म में रौद्र, वीभत्स, करुणा, हास्य, श्रृंगार, वीर, भयानक, अद्भुत और शांत यानी पूरे नौ रसों का चित्रण है लेकिन क्या कीजिएगा इन रसों का जिन्हें देख कर आपके भीतर न भावनाओं का ज्वार उमड़े, न गुस्से का उबाल, न प्रेम की धारा बहे और हंसी आए भी तो सिर्फ खोखली, बस कुछ ही पल के लिए।
चलिए एक्टिंग की बात हो जाए। अक्षय कुमार जंचते हैं, जंच रहे हैं। बाकी किसी के लिए उन्होंने कुछ छोड़ा ही नहीं, सो सब साधारण ही रहे। जब संजय मिश्रा, सीमा विश्वास, मोहन अगाशे जैसे संजीदा कलाकार ऐसी फिल्म में दरकिनार हो जाएं तो क्या ही कहें। अरशद वारसी तक को जूनियर आर्टिस्ट बनाती है यह फिल्म। पंकज त्रिपाठी धनिये की तरह हैं, जब भी आते हैं रंगत बिखेर जाते हैं। जैक्लिन फर्नांडीज़ मेहमान बन कर आईं और चली गईं। कृति सैनन ज़रूर जमी रहीं। आखिर ‘कुछ दिखाने’ वाली ज़िम्मेदारी भी तो निभानी थी न उन्हें। और हां, प्रतीक बब्बर…! शुक्र है कि यह पर्दे पर ज़्यादा देर नहीं दिखे वरना…!
निर्देशक फरहाद सामजी ने इस फिल्म को स्टाइलिश बनाने की पूरी कोशिश की और इसमें वह सफल भी रहे हैं। लेकिन सिर्फ स्टाइल मारने से काम चल जाता तो ‘बॉलीवुड’ की सारी मसाला फिल्में सुपरहिट हो रही होतीं। फिर भी इस फिल्म को देखा जाना चाहिए ताकि इन्हें देख कर हमारी पसंद और ज़्यादा नीचे गिरे। ऐसी फिल्में हम लगातार देखें ताकि हमारा हाजमा और खराब हो। यह फिल्म हमें बीमार करती है, बहुत बीमार। जाइए, देखिए और बीमार हो जाइए क्योंकि जब तक हम बीमार नहीं पड़ते, तब तक हम परहेज भी नहीं करते, जंक-फूड से, जंक-सिनेमा से।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-18 March, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Aise junk cinema ko digest karna pdega
Aap lajwab ho
Thank you sir 🙏🙏
😄🙏🏻
Bas aap aise hi review dete rahe taaki hum jaiso ke paise or time dono save ho sake
ठीक है भाई… हम झेलते रहें, इसका कोई मुआवजा भी तो हो…
इतनी जबरदस्त धुलाई ,लाज़िम है हम ना देखेंगे 😊
😄😄
अच्छा प्रेस शो नही हुआ इसलिए इतनी गालियां दी दी क्या 🤣🤣😂😂
आपके अनमोल कमेंट इसी तरह से लीक होते रहे तो आगे चल कर समस्या गंभीर हो जाएगी… अभी से पुड़िया लेनी शुरू कर दीजिए…
Deepak ji bas yahi wajah hai ki aapke dwara likhey film review ko padne ki utsukta rehti hai. Aapne toh poori tarah bakhiya udhed diya hai…. Rating ka toh sawaal hi nahin. Sahi samay per sahi rai dene ke liye aapka bahut dhanyawad.
शुक्रिया…