–दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
एकदम डिफरेंट किस्म की फिल्म है यह। एक लड़का है, बचपन से ही बागी किस्म का। यहां तक कि अपने बाप को भी नाम से बुलाता है (हालांकि संस्कारी है, पर पता नहीं यह ऐब उसमें कहां से आया)। जहां भी उसके भाई पर कोई मुसीबत आती है, यह उसे बचाने पहुंच जाता है। यहां डिफरेंट बात यह है कि यहां पर मुसीबत में बड़ा भाई घिरता है और बचाने का काम छोटा भाई करता है। कहिए, है न एकदम ही अलग किस्म की कहानी…? तालियां…!
अजी रुकिए, अभी तो बहुत तारीफ करनी बाकी है। इस बागी भाई का बड़ा (लल्लू) भाई जब (पता नहीं किस काबलियत पर) पुलिस में भर्ती होता है तो उसकी जगह गुंडों को ठिकाने लगाने का काम भी अपना यही हीरो ही करता है। लेकिन उसी भोले भाई को जब डिपार्टमैंट सीरिया जैसे देश में एक अपराधी को लाने के लिए ‘अकेले’ भेजता है तो यह हीरो उसे जाने देता है। और जब वहां पर भाई मुसीबत में घिरता है तो यह ‘अपने वाली’ को साथ लेकर फौरन टूरिस्ट वीज़ा लगवा कर अगले ही दिन आगरा से सीरिया पहुंच जाता है। वहां उसे हिन्दी जानने वाली पुलिस भले न मिले लेकिन उसकी मदद करने वाला एक जेबकतरा, भाई को कैद में रखने वाला विलेन और क्लब में गाना गाने वाली लड़की ज़रूर हिन्दी की सेवा करते हुए दिख जाते हैं। जय हो…!
और सीरिया जैसे देश में वह विलेन कर क्या रहा है? वह भारत-पाकिस्तान से बंदे किडनैप करवा कर उन्हें बम वाली जैकेटें पहना कर भीड़ भरी जगहों पर ‘फटने’ के लिए छोड़ देता है। अरे, भले मानसों, जैकेट पहन ही ली थी तो पहनाने वालों के बीच ही बटन दबा देते। खैर, हमारा हीरो आया तो उसने अकेले ही इस इंटरनेशनल आतंकवादी की सत्ता को इतना हिला डाला कि बंदे को शक होने लगा कि उसके पीछे अमेरिका पड़ गया है या रूस। गोलियों की मूसलाधार बरसात, सैंकड़ों की आर्मी, तीन-तीन हेलीकॉप्टर, ढेर सारे टैंकों को अकेले मात देता है हमारा हीरो। चलिए, कोई बात नहीं। इस किस्म की फिल्मों में इतना बेसिर-पैर का मसाला तो चलता ही है लेकिन बेसिर-पैर का होने के साथ-साथ यह बेदिमाग, बेहिसाब, बेफिज़ूल और बेबुनियाद भी है। वाह…!
इस कहानी को लिखने वालों को एक छोटा-सा सलाम किया जाना चाहिए जिन्होंने ढेरों एक्शन-मसाला फिल्मों का घोल बना कर परोस दिया। लेकिन इसकी स्क्रिप्ट लिखने वालों को तो तोपों की सलामी दी जानी चाहिए कि उन्होंने इसे इस तरह से लिखा कि देखने वाले के सामने उसे चुपचाप हज़म करते जाने के अलावा सिर्फ खुदकुशी का ही रास्ता बचता है। और सबसे ज़्यादा तारीफों के हकदार तो साजिद नाडियाडवाला और फॉक्स स्टार स्टूडियो जैसे इसके निर्माता हैं जिनके दफ्तरों में बैठ कर मोटी तनख्वाह लेने वाले ‘सिनेमा के सेवक’ अपने मालिकों को ऐसी फिल्मों पर पैसे लगाने को उकसाते रहते हैं जिन्हें देख कर आपको ऐसा अहसास हो सकता है कि तकनीक के मामले में आपका देश आज से तीस साल आगे पहुंच चुका है और फिल्मों के कंटेंट के मामले में तीस साल पीछे। बताइए, ऐसी ‘टाइम मशीन’ जैसी फिल्म इंडस्ट्री भला है किसी देश में? वारी जांवा…!
‘बागी 2’ के रिव्यू में मैंने टाइगर श्रॉफ के बारे में लिखा था-‘टाइगर श्रॉफ के चाहने वाले उन्हें भले ही ऐसे किरदारों में पसंद करते हों लेकिन लगातार ऐसी फिल्में करके टाइगर खुद का नुकसान ही कर रहे हैं। हर फिल्म में वही, अनाथ, अकेला, कम बोलने और ज्यादा हाथ-पांव चलाते हुए जिमनास्ट-नुमा डांस करने वाला एक्शन हीरो-यह ठप्पा उन्हें महंगा पड़ेगा।’ अब ‘बागी 3’ देख कर लगता है कि बंदे को यह ‘महंगापन’ ही पसंद है। श्रद्धा कपूर ने इस फिल्म में क्या ‘किया’ है उसकी व्याख्या वह खुद ही करें तो बेहतर होगा, अपनी कलम में इतना दम नहीं है। अब कहने को तो इसमें रितेश देशमुख, सतीश कौशिक, जयदीप अहलावत, विजय वर्मा, अंकिता लोखंडे, श्रीस्वरा, मानव गोहिल, वीरेंद्र सक्सेना, जैकी श्रॉफ जैसे तमाम मंझे हुए कलाकार हैं लेकिन जब आप बुरी संगत में खड़े हों न, तो जैसी उस संगत की तारीफ होगी, वैसी ही आपकी भी। ग्रेट…!
अरे, डायरेक्टर अहमद खान की तारीफ तो रह ही गई। सबसे ‘बड़े वाले’ तो यही हैं। ‘बागी 2’ के रिव्यू में मैंने उनके बारे में लिखा था-‘कोरियोग्राफर अहमद खान की अब तक बतौर डायरेक्टर आई दोनों फिल्में ‘लकीर’ और ‘फूल एन फाइनल’ खासी पकाऊ थीं और अब ‘बागी 2’ से यह तय हो चुका है कि वह ऐसी ही फिल्में बना सकते हैं जिनमें मसाले तो होंगे, सिर-पैर नहीं। देखनी हैं तो देखो, वरना हवा आने दो।’ उन्होंने मेरे लिखे को एक बार फिर से सच साबित कर दिखाया है। शुक्रिया अहमद भाई…।
आप चाहें तो यह फिल्म देखते समय एक पतीली में ठंडा पानी और चावल डाल लें। इंटरवल तक वे पक जाएंगे। फिर उसी पतीली में दाल डाल दें क्योंकि इंटरवल के बाद का हिस्सा इस कदर पकाऊ है कि फिल्म खत्म होने से पहले ही आपके पास बिना आंच के खिचड़ी तैयार होगी जो अफारा पैदा करने वाली इस फिल्म के बाद आपको राहत ही देगी। अद्भुत…!
अंत में तारीफ तो आप दर्शकों की भी होनी चाहिए। और करवाइए ‘बागी 2’, ‘दबंग 2’ जैसी फिल्मों को हिट और झेलिए ‘बागी’, ‘दबंग’ 3, 4, 5, 6… 10…20…!
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-06 March, 2020
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)