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Home फिल्म/वेब रिव्यू

गांधी के चंपारण की दुर्दशा दिखाती फिल्म

CineYatra by CineYatra
2021/05/31
in फिल्म/वेब रिव्यू
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-दीपक दुआ…

दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद भारतीय भूमि पर मोहनदास करमचंद गांधी ने जो पहली लड़ाई लड़ी वह बिहार के चंपारण में नील उगाने वाले किसानों की थी। देखा जाए तो यही वह जगह थी जहां वह मोहन दास से महात्मा बनने की राह पर चले और यहीं उन्होंने पहली बार ‘सत्याग्रह’ का प्रयोग किया। 10 अप्रैल, 1917 की इस ऐतिहासिक घटना की शताब्दी हो चुकी है और पिछले साल 26 जनवरी पर जब राजपथ से बिहार की झांकी गुजरी तो उसमें भी गांधी जी के इसी संघर्ष की झलक दिखाई गई थी। लेकिन गांधी के कदम रखने के 99 बरस बाद चंपारण की हालत आज कैसी है? गांधी जी के शुरू किए गए चार स्कूलों की हालत, उनके चलाए पहले चरखे, निलहा कोठी जैसे उनसे जुड़े स्मारकों और खुद उनकी मूर्तियों की दुर्दशा दिखाती है युवा फिल्मकार विश्वजित मुखर्जी की डॉक्यूमेंट्री ‘गांधी का चंपारण’।


चंपारण के ही रहने वाले और स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय लंबोदर मुखर्जी के पोते विश्वजित कहते हैं कि गांधी जी से जुड़ी धरोहरों की दुर्दशा देख कर ही मेरे मन में यह विचार आया कि दुनिया को इस बारे में बताया जाए। वह कहते हैं कि गांधी जी और उनसे जुड़ी जगहों को करीब से जानने-देखने की इच्छा रखने वाले देसी-विदेशी छात्र या विद्वान जब यहां आते हैं तो बहुत दुखी होते हैं।



कई फिल्म समारोहों में काफी सारे पुरस्कार पा चुकी करीब एक घंटे की इस फिल्म में विश्वजित काफी विस्तार से इस इलाके में फैली गांधी की यादों को समेटते हैं। साथ ही वह स्थानीय लोगों और सरकारी पक्ष को भी दिखाते हैं कि किस तरह से एक उदासीनता और अज्ञानता का भाव हर तरफ हावी है। वह बताते हैं कि कुछ साल पहले केंद्र सरकार ने यहां के गांधी सर्किट के विकास के लिए सौ करोड़ रुपए की राशि भेजी थी और अब चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी के अवसर पर भी काफी पैसा आएगा। इस पैसे पर तो सबकी नजर है लेकिन गांधी के चंपारण की दशा सुधारने पर कोई ध्यान नहीं देना चाहता। बकौल विश्वजित उनकी यह फिल्म अगर कहीं कोई सार्थक बदलाव ला पाई, तो वह अपने प्रयास को सफल समझेंगे।

Tags: bishwajeet mookherjeechamparangandhi ka champaran
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