• Home
  • Film Review
  • Book Review
  • Yatra
  • Yaden
  • Vividh
  • About Us
CineYatra
Advertisement
  • होम
  • फिल्म/वेब रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में
No Result
View All Result
  • होम
  • फिल्म/वेब रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में
No Result
View All Result
CineYatra
No Result
View All Result
ADVERTISEMENT
Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-गहरे नहीं उतर पाते ‘सुपरबॉयज़ ऑफ मालेगांव’

Deepak Dua by Deepak Dua
2025/02/26
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
रिव्यू-गहरे नहीं उतर पाते ‘सुपरबॉयज़ ऑफ मालेगांव’
Share on FacebookShare on TwitterShare on Whatsapp

-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)

सिनेमा से राब्ता रखने वालों को तो मालेगांव और वहां की सिनेमाई हलचलों के बारे में पता होगा। जिन्हें नहीं पता, वे पहले यह जान लें कि मालेगांव दरअसल महाराष्ट्र के नासिक जिले का एक छोटा-सा मुस्लिम बहुल शहर है। 90 के दशक में यहां के एक उत्साही युवक नासिर शेख ने अपने दोस्तों, साथियों के साथ मिल कर बहुत कम पैसों में ‘मालेगांव के शोले’, ‘मालेगांव का चिंटू’ सरीखी फिल्में बना कर खूब वाहवाही बटोरी थी और अपनी एक स्थानीय फिल्म इंडस्ट्री खड़ी कर डाली थी। उनके बारे में 2012 में आई फैज़ा अहमद खान की एक डॉक्यूमैंट्री ‘सुपरमैन ऑफ मालेगांव’ बहुत सराही गई थी। उसी डॉक्यूमैंट्री और मालेगांव के उन नौजवानों की ज़िंदगी पर डायरेक्टर रीमा कागती यह फिल्म ‘सुपरबॉयज़ ऑफ मालेगांव’ लेकर आई हैं।

‘सुपरबॉयज़ ऑफ मालेगांव’ कुछ ऐसे नौजवानों की ज़िंदगी दिखाती है जो फोटो स्टूडियो, दुकानदारी, कपड़े की मिल आदि में काम करते हुए रुटीन ज़िंदगी जी रहे हैं लेकिन कुछ अलग, कुछ बड़ा करने की चाहत इन्हें फिल्म-निर्माण की तरफ ले जाती है। कामयाबी मिलने के बाद रिश्तों में दूरियां आती हैं तो मुश्किल वक्त इन्हें फिर से करीब भी ले आता है।

देखा जाए तो ‘सुपरबॉयज़ ऑफ मालेगांव’ में इंसानी रिश्तों के सभी ताने-बाने मौजूद हैं। अधूरी मोहब्बत, पैसे की तंगी के बावजूद आपसी जुड़ाव, पैसा और प्रसिद्धि आने के बाद का गुरूर, गलतफहमियां और फिर दोस्ती निभाने के लिए खुद को झोंक देने का जज़्बा दिखाती इस फिल्म में इन नौजवानों के सपनों की उड़ानें हैं तो वहीं कुछ कर दिखाने का जुनून भी। वरुण ग्रोवर की लिखाई फिल्म के मूड को बनाए रखती है और इसके किरदारों के साथ न्याय करती है। संवाद उम्दा हैं।

डायरेक्टर रीमा कागती का निर्देशन सधा हुआ है। फिल्म की शुरूआत में ही वह अपने किरदारों और उनके आसपास के माहौल को बखूबी बयान कर देती हैं जिससे कहानी का प्रवाह सहज होता चला जाता है। बाद में वह कई सारे सीन में गहरा असर छोड़ती हैं। फिल्म में दिखाई गई घटनाएं भी असरदार हैं। एक असंभव-से काम के लिए कुछ नौसिखियों के जुटने और उसे सफलतापूर्वक पूरा कर दिखाने वाली अंडरडॉग्स की कहानियां वैसे ही पसंद की जाती रही हैं। इन लोगों का अलग होना और दोबारा आ मिलना भी जंचता है। मुंबईया फिल्म इंडस्ट्री की कड़वी सच्चाइयों से भी यह वाकिफ कराती है। ऊपर से इसके कलाकारों की एक्टिंग फिल्म का स्वाद बढ़ाती है। ‘द व्हाइट टाइगर’ में बेहतरीन काम कर चुके आदर्श गौरव नासिर शेख के किरदार को डूब कर जीते हैं। शफीक़ बने शशांक अरोड़ा काफी समय तक कुछ नहीं करते और लगता है कि फिल्म उन्हें ज़ाया कर रही है। लेकिन बाद में वह खुलते हैं और छा जाते हैं। राइटर फरोग़ बने विनीत सिंह अपने किरदार के अलग-अलग जज़्बात बेहतरीन अंदाज़ में पेश करते हैं। रिद्धि कुमार, मंजरी पुपाला, अनुज दुहान, ज्ञानेंद्र त्रिपाठी व अन्य कलाकार भी अपने-अपने किरदारों में रमे हुए नज़र आते हैं। फिल्म की लोकेशंस, सैट, सिनेमैटोग्राफी इसे यथार्थ रूप देते हैं। गीत-संगीत वाला पक्ष हालांकि थोड़ा हल्का रहा है।

(रिव्यू-दहाड़ता नहीं मिमियाता है ‘द व्हाइट टाइगर’)

‘सुपरबॉयज़ ऑफ मालेगांव’ को इसकी कहानी के विश्वसनीय प्रस्तुतिकरण के लिए देखा जा सकता है। इसके कलाकारों की उम्दा एक्टिंग के लिए भी इसे देखा जा सकता है। लेकिन, एक संपूर्ण फिल्म के तौर पर यह उतनी सशक्त नहीं हो पाई है कि देखने वालों को पूरी तरह से छू सके। जब पर्दे पर उभर रही हंसी आपको गुदगुदा नहीं पाए, वहां दिख रही टीस आपको पीड़ा न दे, किरदारों की बेबसी से आपको कसमसाहट न हो तो समझिए कि बनाने वालों से कहीं न कहीं तो कुछ चूक हुई है।

जिन लोगों ने यू-ट्यूब पर मौजूद डॉक्यूमैंट्री ‘सुपरमैन ऑफ मालेगांव’ देखी है उन्हें यह फिल्म उस डॉक्यूमैंट्री के मुकाबले कमज़ोर लगेगी। दरअसल यह फिल्म दर्शकों को भीतर तक नहीं भिगो पाती, उनके दिलों में इतनी गहरी खुदाई नही कर पाती कि वहां से भावनाओं का फव्वारा फूट निकले। इसका यह ‘रूखापन’ ही इसकी कमज़ोरी है, बाकी इस फिल्म में कोई कमी नहीं है।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-28 February, 2025 in theaters

(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)

Tags: adarsh gouravanuj singh duhangyanendra tripathimanjari pupalareema kagtiriddhi kumarshashank aroraSuperboys of MalegaonSuperboys of Malegaon reviewsupermen of malegaonvarun groverzoya akhtar
ADVERTISEMENT
Previous Post

रिव्यू-चटनी चटाती ‘मेरे हस्बैंड की बीवी’

Next Post

रिव्यू-‘क्रेज़ी’ किया रे…

Related Posts

रिव्यू-चरस तो मत बोइए ‘मालिक’
CineYatra

रिव्यू-चरस तो मत बोइए ‘मालिक’

वेब-रिव्यू : राजीव गांधी हत्याकांड पर सधी हुई ‘द हंट’
CineYatra

वेब-रिव्यू : राजीव गांधी हत्याकांड पर सधी हुई ‘द हंट’

रिव्यू : मस्त पवन-सी है ‘मैट्रो… इन दिनों’
CineYatra

रिव्यू : मस्त पवन-सी है ‘मैट्रो… इन दिनों’

रिव्यू-‘कालीधर’ के साथ मनोरंजन ‘लापता’
CineYatra

रिव्यू-‘कालीधर’ के साथ मनोरंजन ‘लापता’

रिव्यू-’शैतान’ से ’मां’ की औसत भिड़ंत
CineYatra

रिव्यू-’शैतान’ से ’मां’ की औसत भिड़ंत

वेब-रिव्यू : रंगीले परजातंतर की रंग-बिरंगी ‘पंचायत’
फिल्म/वेब रिव्यू

वेब-रिव्यू : रंगीले परजातंतर की रंग-बिरंगी ‘पंचायत’

Next Post
रिव्यू-‘क्रेज़ी’ किया रे…

रिव्यू-‘क्रेज़ी’ किया रे...

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

  • होम
  • फिल्म/वेब रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में
संपर्क – dua3792@yahoo.com

© 2021 CineYatra - Design & Developed By Beat of Life Entertainment

No Result
View All Result
  • होम
  • फिल्म/वेब रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में

© 2021 CineYatra - Design & Developed By Beat of Life Entertainment