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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-उम्मीदें जगाती है ‘पूर्णा’

Deepak Dua by Deepak Dua
2017/04/03
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
रिव्यू-उम्मीदें जगाती है ‘पूर्णा’
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-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

हिन्दी फिल्में लड़कियों को लगातार सशक्त दिखाने लगी हैं। ‘दंगल’ ने ‘म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के’ कहा था तो ‘पूर्णा’ अब ‘लड़कियां कुछ भी कर सकती हैं’ का नारा बुलंद कर रही है। इन दोनों फिल्मों की कहानी एक जैसी लग सकती है लेकिन दोनों में काफी फर्क है और सच यह है कि ‘पूर्णा’ में ज्यादा गहरी बातें कही गई हैं। बस, दिक्कत यह रही कि इस फिल्म को आमिर खान जैसा कोई बड़ा स्टार न मिल सका नहीं तो यह भी टिकट-खिड़की पर धमाल करती।

2014 में तेलंगाना (तब के आंध्र प्रदेश) की एक आदिवासी लड़की मात्र 13 साल 11 महीने की उम्र में दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट को फतह करके ऐसा करने वाली दुनिया की सबसे छोटी लड़की बनी थी। यह फिल्म उसी लड़की पूर्णा मलावत की सच्ची और प्रेरणादायक कहानी पर बनी है।

एक छोटे-से गांव के बेहद गरीब घर की पूर्णा को घर वाले समाज कल्याण विभाग द्वारा चलाए जा रहे स्कूल में इसलिए भेजते हैं क्योंकि वहां रहना-खाना मुफ्त है। उस स्कूल में पूर्णा के अंदर पर्वतारोहण की प्रतिभा को पहचान कर विभाग के सचिव प्रवीण कुमार न केवल उसे बढ़ावा देते हैं बल्कि उसे हर संभव सहयोग व सुविधाएं भी उपलब्ध कराते हैं। एक दिन वही पूर्णा तमाम कठिनाइयों को पार करती हुई माउंट एवरेस्ट पर चढ़ कर इतिहास रच देती है।

इस फिल्म की कहानी बिल्कुल सीधी है लेकिन इसके आसपास का आवरण इसे विशेष बनाता है। एक ऐसा समाज जहां 12-13 की उम्र होते-होते लड़कियों की शादी कर दी जाती है, वहां से निकल कर पूर्णा आगे बढ़ती है। उधर स्कूलों की हालत भी खराब है। न तो अध्यापकों को पढ़ाने की फिक्र है और न ही ठेकेदारों को पौष्टिक खाना खिलाने की। लेकिन प्रवीण कुमार के मजबूत इरादों से हालात बदलने लगते हैं। फिल्म इस बात को साबित करती है कि व्यवस्था को बदलने का काम हमेशा ऊपरी स्तर से होता है। अगर ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोग तय कर लें कि तो नीचे वालों की मजाल नहीं कि वे बेईमानी या कामचोरी कर सकें।

अक्सर हम शिकायत करते हैं कि निर्देशक ने अच्छी-भली कहानी में मसाले डाल कर उसे ‘फिल्मी’ बना दिया। लेकिन इस फिल्म को लेकर यह शिकायत की जा सकती है कि निर्देशक राहुल बोस ने इसे ‘फिल्मी’ क्यों नहीं बनाया? एकदम असली लगने वाली लोकेशन, बहुत उम्दा फोटोग्राफी, बिल्कुल वास्तविक लगते कलाकारों, हिन्दी-तेलुगू मिश्रित भाषा और बिना किसी मसाले-फॉर्मूले के यह फिल्म बहुत ही सहज और प्यारी लगती है। इसे देखते हुए मन होता है कि काश इसमें थोड़ी और नाटकीयता होती, थोड़ी और भव्यता होती और इसे थोड़े और बड़े पैमाने पर बनाया जाता तो संभव है कि यह भी ‘दंगल’ की तरह कोई कमाल कर जाती।

हालांकि यह फिल्म भी कम नहीं है। पूर्णा के किरदार को अदिति इनामदार इतनी गहराई से जीती हैं कि वह कोई अभिनेत्री नहीं बल्कि असली पूर्णा लगती हैं। पूर्णा को प्रेरित करने वाली सहेली प्रिया के रोल में एस. मारिया भी उतनी ही विश्वसनीय लगती हैं। प्रवीण कुमार की भूमिका में राहुल बोस बहुत प्रभावी रहे। धृतिमान चटर्जी, आरिफ जकारिया, हर्षवर्द्धन, हीबा शाह और बाकी तमाम कलाकार भी अपने किरदारों में एकदम खरे उतरे। सलीम-सुलेमान के संगीत में अमिताभ भट्टाचार्य के लिखे गीत थोड़े और बेहतर, और अधिक प्रेरक होने चाहिएं थे। राहुल बोस का बतौर निर्माता इस फिल्म को बनाना उनके दुस्साहस का प्रतीक है और उनका निर्देशन सराहना का हकदार। लेकिन थोड़ी और कल्पनाशीलता, थोड़ी और भव्यता, थोड़ा और ‘धक्का’ इस फिल्म को लोकप्रियता व सफलता की चोटी पर पहुंचा सकता था।

‘पूर्णा’ जैसी फिल्में उम्मीदें जगाती हैं। बताती हैं कि अपने बच्चों की आंखों में झांकिए, वहां सपने तैरते हुए दिखें तो उन सपनों को सच करने में जुट जाइए। क्या पता कब, कौन, कहां इतिहास  रच दे।

अपनी रेटिंग-चार स्टार

Release Date-31 March, 2017

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: aditi inamdararif zakariaDhritiman Chatterjeeheeba shahpoornapoorna malavathpoorna reviewrahul bose
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