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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-अरमानों से हल्का-सा ‘पंगा’

Deepak Dua by Deepak Dua
2020/01/25
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
रिव्यू-अरमानों से हल्का-सा ‘पंगा’
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-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

कभी थी वो देश की कबड्डी टीम की कप्तान। आज उसके पास रेलवे की नौकरी है। पति भी रेलवे में इंजीनियर। एक प्यारा-सा बेटा। रेलवे का दिया घर। खुशहाल ज़िंदगी। क्या नहीं है उसके पास। लेकिन उसे तो ज़िंदगी से पंगा लेना है। बेटे के अरमान पूरे करने के लिए कबड्डी में वापस आई जया निगम को अब कबड्डी में अपनी भी खुशी दिखाई देने लगती है। लेकिन यह पंगा इतना आसान थोड़े ही है।

रेलवे की टीम में चुने जाने के बावजूद सिर्फ अपने परिवार की देखभाल के लिए पीछे हटने को मजबूर जया का कहना है-‘मैं एक मां हूं। एक मां को सपने देखने का कोई हक नहीं होता।’ कितना बड़ा और कड़वा सच है हमारे समाज का जिसमें शादी के बाद ज़्यादातर पत्नियों और बच्चा होने के बाद ज़्यादातर मांओं से बस यही उम्मीद की जाती है कि वे चाहें तो घर चलाने को काम-धंधा भले ही कर लें, अपने सपनों, अपने अरमानों को उठा कर किचन के उसी सिंक में फेंक दें जिसमें रोज़ाना वे अपने परिवार के जूठे बर्तन धोती हैं। यह फिल्म इसी सच से भिड़ती एक आम औरत की खास कहानी दिखाती है-ज़रा आम और थोड़े हल्के अंदाज़ में।

जी हां, 7 साल के बच्चे की 32 साल की मां के कबड्डी में कमबैक करने की यह कहानी पहली नज़र में प्रेरित भले ही करती हो लेकिन इस कहानी में वो भारीपन, वो पैनापन, वो धार, वो रफ्तार नहीं है जो इस मिज़ाज की फिल्मों के असर को बढ़ा कर इन्हें अमरत्व दिलाती हैं। कमी लेखन के स्तर पर ज़्यादा नज़र आती है। आधी से ज़्यादा फिल्म भूमिका बांधने में निकल जाती है। इसके बाद जब बात पटरी पर आती है तो फिल्म के अंदर जया के परिवार और इधर थिएटर में बैठे हम दर्शकों के सब्र का इम्तिहान लेने लगती है कि गाड़ी आउटर पर क्यों खड़ी है और जो होना था, वह हो क्यों नहीं रहा है। हां, क्लाइमैक्स छूता है, आंखें भी नम करता है।

फिल्म की पटकथा फिल्मी-सी लगती है। जया का कहना है कि उसे पंगा लेना है लेकिन यह पूरा सच नहीं है। जया का पति महा-सप्पोर्टिव है। ऐसा पति हो तो पत्नी रोज़ आकाश छुए। बच्चे के कारण तो वह कमबैक कर ही रही है। उसकी मां, पड़ोसी, ऑफिस वाले, सहेली, कोच, सलैक्टर, मीडिया, समाज, सभी तो उसके साथ हैं। वह भिड़ी किससे? दरअसल यह उसकी खुद से ही पंगा लेने की कहानी ज़्यादा दिखती है। बेहतर होता कि उसे कई मोर्चों पर भिड़ते और जीतते दिखाया जाता। स्क्रिप्ट में कई जगह छेद भी हैं। कुछ एक संवाद बहुत अच्छे हैं। डायरेक्टर अश्विनी अय्यर तिवारी अपनी बात कह पाने में कामयाब रहती हैं लेकिन अपनी फिल्मों (‘निल बटे सन्नाटा’, ‘बरेली की बर्फी’) में वह उतने ज़ोर से वार नहीं कर पाती हैं जितना दम उनके पति नितेश तिवारी अपनी ‘दंगल’ या ‘छिछोरे’ जैसी फिल्मों में लगा जाते हैं। अश्विनी को भी खुद से पंगा लेना होगा।

कंगना रानौत अपने किरदारों को डूब कर जीना जानती हैं। हर किस्म के भाव को वह बखूबी दर्शा पाती हैं। उनके पति बने जस्सी गिल अपने किरदार के मुताबिक क्यूट लगते हैं। इन दोनों के बेटे की भूमिका में यज्ञ भसीन का काम सबसे ज़्यादा प्रभावी रहा है। अपनी उम्र से बड़े लगते संवाद बोलने के बावजूद यज्ञ लुभाते हैं। ऋचा चड्ढा, नीना गुप्ता, साथी खिलाड़ी निशा दास के रोल में मेघा बर्मन, सलैक्टर बने राजेश तैलंग जैसे कलाकार भरपूर साथ निभाते हैं। गीत-संगीत कहानी में रचा-बसा लगता है। जावेद अख्तर के शब्द असर छोड़ते हैं। भोपाल की रेलेवे कॉलोनी की लोकेशन का उम्दा इस्तेमाल किया गया है। अपने हल्केपन के बावजूद यह फिल्म देखे जाने लायक है। खासतौर से पतियों-बच्चों द्वारा, जिनकी नज़रों में उनके अरमानों के आगे उनकी पत्नियों-मांओं के अरमानों की अक्सर कोई अहमियत नहीं होती।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-24 January, 2020

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: Ashwiny Iyer Tiwarijassi gillkangana ranautmegha burmanneena guptanitesh tiwariPanga reviewrajesh tailangricha chaddayagya bhasin
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