-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
चलिए, पहले तो यह मान लें कि यह फिल्म किसी ऐतिहासिक कहानी पर नहीं, बल्कि कल्पना पर आधारित है। हम क्या मानें, यह बात तो फिल्म के शुरू में खुद फिल्मकार संजय लीला भंसाली ने ही मानी है कि यह फिल्म इतिहास की बजाय मलिक मौहम्मद जायसी के महाकाव्य ‘पद्मावत’ पर आधारित है जिसे काल्पनिक माना जाता रहा है। लेकिन यहां तो और भी ज़्यादा झोल है क्योंकि यह फिल्म तो पूरी तरह से ‘पद्मावत’ पर भी आधारित नहीं है।
खैर, इस बात से हमें क्या मतलब कि भंसाली ने अपनी फिल्म की कहानी इतिहास के पन्नों से ली, साहित्य की किसी किताब से, खुद लिखी या काले चोर से लिखवाई। हम तो दर्शक बन कर उस चीज़ को देखने गए जो पर्दे पर दिखाई गई। तो पहले कहानी की बात, जो कि हम सब को पता है। मेवाड़ के राजा रतन सिंह सिंहल द्वीप (श्रीलंका) की राजकुमारी पद्मिनी को ब्याह कर ले आए। राजगुरु राघव चेतन की बुरी नज़र रानी पर पड़ी तो राजा ने राजगुरु को देश निकाला दे दिया। उस गद्दार ने दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी को जाकर पद्मावती की सुंदरता का ऐसा बखान किया कि खिलजी मेवाड़ पर चढ़ दौड़ा। जब किला फतेह न कर सका तो उसने छल से रतन सिंह को कैद कर लिया। रानी ने अपनी सूझबूझ से राजा को छुड़वाया लेकिन खिलजी फिर आ धमका। रतन सिंह युद्ध में मारा गया और रानी ने दूसरी औरतों संग आग में कूद कर जौहर कर लिया।
फिल्म का एक संवाद कहता है कि इतिहास सिर्फ वो नहीं होता जो कागज़ पर लिखा जाता है बल्कि इतिहास दिलों में भी लिखा जाता है। फिल्म के एक सीन में खिलजी इतिहास के उन पन्नों को फाड़ रहा है जिनमें उसका नाम नहीं है। यह सीन दिखा कर भंसाली किन लोगों पर तंज कस रहे हैं? क्या पन्ने फाड़ने (विरोध करने) से इतिहास बदल जाएगा? इस फिल्म को देख कर साफ लगता है कि भंसाली ने उन लोगों के दबाव में आकर ऐसी फिल्म बना दी जो इसका विरोध कर रहे थे। इस चक्कर में उन्होंने जो कहानी रची वो किसी के साथ न्याय करती नहीं दिखती। न तो इसमें राजपूती आन-बान-शान का वैसा मंज़र है कि देखने वाला हश-हश कर उठे और न ही यह रतन सिंह और पद्मावती के अलौकिक प्यार को उस गहराई से दिखा पाई कि इनके मरने पर दिल रो पड़े।
रतन सिंह और पद्मावती के बीच पहली ही नज़र में प्यार हो जाता है जो अंत तक कायम रहता है। लेकिन दिक्कत यह है कि यह प्यार सिर्फ सामने पर्दे पर दिखाई देता है, पर्दे से उतर कर हमारे अंतस को नहीं छू पाता। और एक-आध दृश्य को छोड़ कर यह फिल्म राजपूतों के शौर्य की भी कोई महागाथा नहीं रच पाती। सच तो यह है कि यह फिल्म न तो पद्मावती की कहानी है न रतन सिंह की। यह अलाउद्दीन खिलजी की कहानी है जो उसके रक्त-पिपासु, तख्त-पिपासु और सैक्स-पिपासु होने को शिद्दत से स्थापित करती है। यह खिलजी को एक ऐसे खलनायक के तौर पर दिखाती है जो पूरी फिल्म में हर किसी पर भारी पड़ता है। अमीर खुसरो जैसे सूफी कवि को खिलजी का चापलूस दरबारी दिखाने के पीछे भंसाली की क्या मंशा रही होगी? गोरा-बादल जैसे वीरों का चित्रण भी आधा-अधूरा ही रह गया।
पद्मावती के किरदार में दीपिका पादुकोण ग्रेसफुल लगती हैं। अपने संवादों से वह प्यार और शौर्य की बात भी करती हैं लेकिन उनका किरदार इन संवादों को सपोर्ट नहीं कर पाता। रतन सिंह के रोल में शाहिद कपूर की मेहनत दिखती है लेकिन उनके सामने रणवीर सिंह को खिलजी के रोल में लार्जर दैन लाइफ बनाने से वह दब-से गए हैं। रणवीर का भी सिर्फ मेकअप बदला है, तेवर उनके पिछली फिल्मों जैसे ही रहे हैं। बार-बार उन्हें लेने की बजाय भंसाली को किसी और कलाकार पर भरोसा करना चाहिए था। खिलजी के समलैंगिक गुलाम मलिक काफूर के रोल में जिम सरभ ज़रूर अपनी अदाकारी से प्रभावित करते हैं। रतन सिंह की बड़ी रानी नागमती बनी अनुप्रिया गोयनका को कुछ खास रोल ही नहीं मिल पाया। यही हाल खिलजी की बेगम मेहरुनिसा के रोल में आई अदिति राव हैदरी का रहा। राघव चेतन, गोरा सिंह, सुजान सिंह बने कलाकारों का काम प्रभावी लगता है।
ऐसी फिल्म में संवादों का दमदार होना जरूरी होता है। लेकिन कुछ एक संवादों को छोड़ इस बार मामला कमजोर रहा है। इस बार आश्चर्यजनक रूप से गीत-संगीत भी उतना जानदार नहीं है जिसके लिए भंसाली जाने जाते हैं। रगों को फड़काते किसी गाने की सख्त दरकार थी। भंसाली की फिल्मों के सैट शानदार होते ही हैं। फिल्म के विज़ुअल्स प्रभावशाली हैं लेकिन स्पेशल इफैक्ट्स की कमियां छुपी नहीं रह पातीं। सेना के ऊपर से जब कैमरा जाता है तो सैनिकों के पुतले साफ दिखाई देते हैं। जब आप संजय लीला भंसाली की फिल्म देख रहे हों, जब उनकी ‘बाजीराव मस्तानी’ के किरदारों, अदाकारों, संवादों, गीतों और दृश्यों की खुमारी अभी तक भी जेहन में मौजूद हो तो ऐसे में आपको कुछ ज्यादा चाहिए होता है। और वह इस फिल्म में नहीं है। इस फिल्म के शानदार होने में कोई शक नहीं है। अपने भव्य रूप-आवरण और हालिया विवादों से उपजी उत्सुकता के चलते यह भीड़ भी खींच लेगी। लेकिन जब झाग बैठ जाएगी तब पता चलेगा कि इसमें उतनी जान नहीं है, जितनी होनी चाहिए थी।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
Release Date-25 January, 2018
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)