-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
26 नवंबर, 2008 की उस शाम मुंबई में हुए आतंकी हमलों पर अलग-अलग नज़रियों से अब तक काफी कुछ बनाया, देखा जा चुका है। होटल वालों के, पुलिस के, मीडिया के, आम लोगों के, आतंकियों के नज़रियों को दिखाया जा चुका है। लेकिन उस रात जब मुंबई का सीना छलनी किया जा रहा था तो वहां के डॉक्टर, नर्सें और दूसरे चिकित्साकर्मी उस पर मरहम लगाने का काम कर रहे थे। अमेज़न प्राइम पर आई यह वेब-सीरिज़ हमें उन हैल्थ-वकर्स के उस नज़रिए और उनकी उस दुनिया में ले जाती है जिसके बारे में अब तक बहुत कम बात हुई है।
बांबे जनरल हॉस्पिटल। अलग-अलग किस्म के मरीज, नर्सें, स्टाफ। किस्म-किस्म के डॉक्टर जिनमें उसी दिन ज्वाइन करने वाले तीन युवा डॉक्टर भी हैं। हर किसी के अपने-अपने दर्द, अपने-अपने डर। इनसे जूझते हुए और सीमित सुविधाओं में ये लोग अपने मरीज ही नहीं संभाल पा रहे हैं कि तभी आतंकी हमले में घायल लोग, पुलिस वाले और आतंकियों तक को यहां लाया जाने लगता है। सब लोग जुटे हुए हैं हालात संभालने में, संवारने में। पर क्या ये सब इतना आसान है? खासकर तब, जब मीडिया पल-पल अपनी खबरों से हालात बिगाड़ने में लगा हुआ हो।
किसी आपदा के वक्त उससे पीड़ित होने वालों की कहानियां अक्सर आती हैं। उस आपदा से निबटने वालों की कहानियां भी आने लगती हैं। लेकिन मेडिकल प्रोफेशन से जुड़े लोगों की बात आमतौर पर नहीं होती। मान लिया जाता है कि वे अपनी ड्यूटी ही तो कर रहे हैं। लेकिन जिस तरह से इस सीरिज़ की कहानी एक अस्पताल के अंदर झांकती है और उसके बरअक्स यह इंसानी जज़्बातों की तह में जाती है, वह सचमुच देखने और सराहने लायक है।
लेखकों की टीम ने तो उम्दा काम किया ही है, डायरेक्टर निखिल आडवाणी और निखिल गोंज़ाल्विस ने भी भरपूर दमखम के साथ एक प्रभावशाली कहानी को पर्दे पर उतारा है। पूरी टीम की मेहनत ही है जो इस सीरिज़ को देखते हुए आप कभी उत्तेजित होते हैं, कभी उद्वेलित, कभी उदास तो कभी मायूस। कभी आप बेचैन होकर पहलू बदलते हैं तो कभी मन खिन्न होता है और इच्छा होती है कि यह सीक्वेंस जल्दी खत्म हो। आपकी यह खिन्नता असल में इसे बनाने वालों की सफलता है। कुछ एक जगह जब यह कहानी आपकी आंखें नम करती है तो इसे बनाने वाले फिर से कामयाब होते हैं।
ऐसा नहीं कि कमियां नहीं हैं इसमें। बिल्कुल हैं। राइटिंग कहीं-कहीं ढीली है। सीक्वेंस कहीं-कहीं बहुत लंबे हैं। आठ एपिसोड बनाने की ज़िद इसे कमज़ोर करती है। कस कर रखते तो सात कड़ियों में बात निबट जाती। मेडिकल या पुलिस प्रोफेशन की तकनीकी बारीकियों का महीन ज्ञान रखने वाले भी कहीं-कहीं उंगली उठा सकते हैं। स्क्रिप्ट में छेद हैं लेकिन कहानी के प्रवाह और प्रभावी डायरेक्शन के ढक्कनों से उन्हें ढका गया है और वे अखरते नहीं हैं।
मोहित रैना ने प्रभावी अभिनय किया है। जब वह ‘हम मरीज़ की नब्ज़ देख कर इलाज करते हैं, उसकी फितरत नहीं’ कहते हैं तो सीधा वार करते हैं। श्रेया धन्वंतरी, टीना देसाई, मृणमयी देशपांडे, दीया पारेख, बालाजी गौरी, प्रकाश बेलावड़े, अदिति कलकुंटे, सोनाली सचदेव, मोहिनी शर्मा, संदेश कुलकर्णी, विक्रम आचार्य, प्रिंसी सुधाकरण जैसे कलाकार अपने किरदार प्रभावी ढंग से निभाते हैं तो कोंकणा सेन शर्मा बताती हैं कि कैसे और क्यों वह एक उत्कृष्ट अदाकारा हैं। एक सीन में आकर सोनाली कुलकर्णी भी असर छोड़ती हैं।
फिल्म का कैमरावर्क बेहद असरदार है। फिल्म के आर्ट-डायरेक्शन पर अलग से बात होनी चाहिए। एक सरकारी अस्पताल के माहौल को बेहद वास्तविक ढंग से जीवंत बनाया गया है। वहां की अफरा-तफरी और टूट-फूट में जिस तरह से शूटिंग को अंजाम दिया गया उसके लिए तकनीकी टीम की प्रशंसा होनी चाहिए। मुंबई हमलों पर पहले कुछ देख चुके दर्शकों को नया कुछ न मिले, जज़्बातों के अहसास ज़रूर मिलेंगे। ये अहसास ज़रूरी हैं। जो ज़ख्म 26/11 की रात मिले, उन पर बात होती रहनी चाहिए।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि सीरिज़ कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-09 September, 2021
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Bhut badia
Producer ne acchi soch ke sath kam kia h