-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
भारत ने तय किया कि वह मंगल ग्रह पर अपना यान भेजेगा। अमेरिका, रूस जैसे देश तक पहली कोशिश में नाकाम हो चुके थे। लेकिन भारतीय वैज्ञानिक जुट गए। दिन-रात एक कर दिया और एक दिन उन्होंने पहली ही कोशिश में मंगल पर अपना यान भेज भी दिया-दूसरे देशों के मुकाबले कहीं कम लागत में, कहीं कम समय में, कहीं ज़्यादा परफैक्शन के साथ।
यह कहानी नहीं, हकीकत है। और अगर इस हकीकत को पूरे ‘हकीकती अंदाज़’ में दिखाया जाए तो सबसे पहले तमाम दर्शकों को एयरोस्पेस इंजीनियरिंग करवानी पड़ेगी और उसके बाद भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) में ले जाकर कम-से-कम साल भर की इंटर्नशिप। उसके बाद बड़े भारी-भरकम रिसर्च और तगड़ी वैज्ञानिक शब्दावली वाली फिल्म बन कर आएगी जिसे देख कर ये ‘पढ़े-लिखे’ दर्शक कोई मीनमेख नहीं निकालेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। दूसरा तरीका यह है कि इस फिल्म की तमाम बातों को बड़े ही सहज, सरल शब्दों में, हिन्दी सिनेमा की तमाम खूबियों (इन्हें आप ‘मसाला’ भी कह सकते हैं) के साथ इस तरह से दिखाया जाए कि इसे बच्चे भी आसानी से समझ सकें। इस फिल्म को बनाने वालों ने यही दूसरे वाला तरीका चुना है।
कुछ बड़ा करने के मकसद से अलग-अलग पृष्ठभूमि से आकर इक्ट्ठा हुए लोगों की कहानियां फिल्मी पर्दे पर बहुत दफा आई हैं। इन लोगों में से कोई एक-दो (आमतौर पर इनके लीडर) ही होते हैं जो उस ‘बड़े काम’ को अपने सपने के तौर पर देखते हैं। बाकी लोग तो बस वहां नौकरी बजाने आए होते हैं। इनके ये लीडर किस तरह से अपने सपने को सबका सपना बना देते हैं और ये लोग कैसे एक टीम में तब्दील होकर उस बड़े मकसद को हासिल करते हैं, यह हम ‘चक दे इंडिया’, ‘ए.बी.सी.डी.’, ‘केसरी’, ‘परमाणु’ जैसी फिल्मों में देख चुके हैं। यह फिल्म भी उसी कतार का हिस्सा है जिसमें सिर्फ दो वैज्ञानिकों को लगता है कि वह कम समय और कम लागत में मंगलयान बना लेंगे। बाकी के वैज्ञानिक वहां 9 से 5 की नौकरी कर रहे होते हैं। लेकिन ये दोनों अपने सपनों को उनकी भी आंखों में बसा पाने और उन्हें सच करने में उन लोगों को भी जुटा पाने में कामयाब होते हैं।
इस फिल्म की कहानी भले ही साधारण हो, इसकी स्क्रिप्ट की रफ्तार आपको चैन नहीं लेने देती। जगन शक्ति के निर्देशन में कसावट है। फिल्म शुरू होने के बाद कब एक घंटा बीत जाता है और इंटरवल आ जाता है, पता ही नहीं चलता। संवाद चुटीले हैं और दिल खुश करते हैं। फिल्म की सबसे बड़ी खासियत इसके किरदार हैं। हर किरदार को गढ़ने में भारी मेहनत की गई है और कलाकारों ने इस तरह से उन्हें निभाया है कि वे तालियों के हकदार हो जाते हैं। कैमरे, रंगों, सैट्स और ग्राफिक्स ने चीजों को और विश्वसनीय ही बनाया है। गीत-संगीत ज़रूरत भर का है और अच्छा है।
इसरो के मंगल मिशन को पूरा करने में जुटे इन वैज्ञानिकों-इंजीनियरों की अलग-अलग पृष्ठभूमियां, इनकी निजी ज़िंदगी की उठापटक, इनके आड़े आने वाली मुश्किलें और उन मुश्किलों से पार पाने की इनकी कोशिशें, सब फिल्मी-सी लगती हैं। लेकिन अगर आप कुछ भारी-भरकम कह रहे हैं और चाहते हैं कि बात उस आम आदमी तक पहुंचे जो न तो आपकी तरह पढ़ा-लिखा है, न ही विज्ञान और वैज्ञानिकों की उपलब्धियों को लेकर आपकी तरह सचेत है और न ही उसे यह फर्क पड़ता है कि उसके देश का कोई यान मंगल या चांद पर जा पहुंचा है, तब यह ज़रूरी हो जाता है कि आप कहानी को इतना सरल और सहज प्रवाह दे दें कि वह उससे जुड़ सके। यही इस फिल्म में हुआ है। हर बाधा पार करने के बाद उधर पर्दे पर वैज्ञानिक खुश होते हैं और इधर थिएटर में बैठा दर्शक। उधर वैज्ञानिक कामयाब होते हैं और इधर दर्शकों की आंखें भीगती हैं। सिनेमा की यही सफलता है, यह आपको अपने साथ जोड़ लेता है और उस चीज़ में भी आनंद की अनुभूति करवाता है जिससे आपका सीधे तौर पर न साबका पड़ा होता है और न कोई वास्ता होता है। यहीं आकर यह फिल्म देखने लायक बन जाती है और शाबाशियों की हकदार भी हो जाती है। और हां, जिसे यह आनंद न चाहिए हो, वह पैसे बचाए, घर बैठ कर डिस्कवरी चैनल देखे।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-15 August, 2019
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)