-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
इस फिल्म के लेखक-निर्देशक इम्तियाज़ अली खुद यह बात मान चुके हैं कि इसे बनाने का आइडिया उन्हें दोस्तों की एक बैठक में आया कि 2009 में आई उनकी फिल्म ‘लव आज कल’ के किरदार अगर आज के समय में होते तो कैसे बर्ताव करते। आगे की कहानी यह है कि दोस्तों की उस बैठक में एक तो होंगे निर्माता दिनेश विजन जिन्होंने पिछली वाली ‘लव आज कल’ से खूब नोट छापे थे सो इस फिल्म पर पैसा लगाने से नहीं हिचके होंगे। दूसरे होंगे सैफ अली खान जिन्होंने कहा होगा-यार, मेरी बेटी को ले ले इस बार। वो बेचारी भी कोई कायदे की फिल्म कर लेगी जिसे देख कर लोग कहेंगे-वाओ…! पर क्या ऐसा हो पाया?
यह फिल्म अपने कलेवर में बिल्कुल पिछली फिल्म जैसी है। वही कैरियर के सपनों और प्रेम के अहसास के बीच झूलते किरदार, वैसी ही उनकी उलझनें, दिमाग की सुनने से उपजे वैसे ही हालात और बाद में अपने दिल की सुनने से हासिल हुआ वैसा ही अंत। तो फिर ट्विस्ट क्या है? सच कहूं तो कुछ नहीं। पिछली फिल्म में सैफ प्यार से ऊपर कैरियर को तरजीह दे रहे थे और ऋषि कपूर उन्हें अपनी लव-स्टोरी सुना कर समझा रहे थे। इस बार सारा अली खान सैफ जैसी हरकतें कर रही हैं और रणदीप हुड्डा उन्हें कह रहे हैं कि वे गलतियां मत करना जो कभी मैंने की थीं।
और अब सबसे बड़ा सवाल यह कि जब कहानी का मूल ढांचा पिछली फिल्म सरीखा है तो ज़ाहिर है कि मनोरंजन की खुराक भी पिछली फिल्म जितनी ही होगी? काश, कि ऐसा होता। दरअसल ‘रॉकस्टार’ के बाद से इम्तियाज़ का लेखन उतार पर है। वे अपने किरदारों को तो ज़िंदगी के फलसफों में उलझाए ही रखते हैं, उन फलसफों की उलझनों में दर्शकों को भी लपेट लेते हैं। शुरू में जब वह ऐसा कर रहे थे तो दर्शकों के लिए यह नई चीज़ थी और तब इम्तियाज का अंदाज़-ए-बयां भी अपेक्षाकृत सहज और सरल था। लेकिन धीरे-धीरे उनकी फिल्मों में ये बयानबाज़ियां इतनी ज़्यादा और इतनी गूढ़ होने लगीं कि ये ‘बकर-बकर’ लगने लगीं। हालांकि प्यार और रिश्तों के फलसफे आसान नहीं होते लेकिन किसी फिल्म में इन्हें इतना मुश्किल भी क्या बनाना कि देखने वाले की पलकें और सिर ही नहीं, आत्मा तक बोझिल होने लगे?
इस फिल्म के किरदार हमें अपने-से नहीं लगते, कहीं छूते नहीं हैं। बातें ये भले ही कैरियर की कर रहे हों लेकिन पर्दा बताता है कि ये खाए-पिए-अघाए लोग हैं। खुद इम्तियाज का निर्देशन भी बहुत ज़्यादा भटकाव लिए हुए है। अपने अंदर के बुद्धिजीवी को थोड़ा-सा सहला कर उसे थोड़ा आम आदमी बना दें वे तो गहरी बात कह सकेंगे। सिर्फ कबीर और रूमी के ज़िक्र से ही मोहब्बतें असरदार नहीं बना करतीं। हां, अंत सचमुच अच्छा है, प्यारा लगता है।
कार्तिक आर्यन तेज़ी से सुपर-स्टारडम की तरफ बढ़ रहे हैं। इस फिल्म के अपने किरदार को कुछ सहमे हुए-से अंदाज़ में निभाते हुए वह जंचे। 1990 के दौर वाले किरदार में भी वह ठीक थे और आरुषि शर्मा भी। लेकिन 1990 कोई पचास साल पहले नहीं आया था जो इम्तियाज़ की टीम ने उसे इतना पुराना दिखा दिया। और हां, नब्बे के दशक में दिल्ली के किसी रेस्टोरेंट में वेटर को 25 हज़ार रुपए की तनख्वाह…! इतना उदारवाद भी नहीं ला पाए थे मनमोहन सिंह।
फिल्म के एक सीन में सारा अली खान से कहा जाता है-तुम ओवररिएक्ट कर रही हो। सच यह है कि सारा पूरी फिल्म में ओवर-एक्ट करती रहीं। हां, जिस्मानी सौंदर्य उनके अंदर जो है, सो है ही और उसके उन्होंने जलवे भी दिखाए। एक्टिंग के मामले में बाज़ी मारी हुड्डा ने। बस, उनका किरदार ही हल्का रह गया। सारा की मां बनीं सिमोन सिंह प्यारी लगीं। बिजनेसमैन मेहता बन कर दो सीन में आए सिद्धार्थ काक को देखना सुखद लगा। बैकग्राउंड म्यूज़िक उम्दा है और ‘ये दूरियां…’ वाला गाना भी। लेकिन बाकी के गाने बहुत हल्के हैं जबकि पिछली वाली फिल्म को चलाने और दिलों में उतारने में उसके गानों का भी बहुत बड़ा हाथ था।
यह फिल्म आपको छूती नहीं है, सहलाती नहीं है, कचोटती नहीं है, चुभती नहीं है, अंदर नहीं उतरती, हंसाती नहीं है, रुलाती नहीं है। सच तो यह है कि अगर आपने पिछली वाली ‘लव आज कल’ नहीं देखी है, तो यह पूरी तरह से समझ तक नहीं आएगी। और अगर आपने वह देखी है तो यह आपको पसंद नहीं आएगी। आगे मर्ज़ी आपकी।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-14 February, 2020
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)