-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
कभी जलियांवाला बाग गए हैं आप? अमृतसर में हरमंदिर साहिब के पास यह वही जगह है जहां 13 अप्रैल, 1919 को उस खूनी बैसाखी के दिन अंग्रेज़ी हुकूमत के सनकी जनरल डायर की चलवाई गोलियों से सैंकड़ों बेकसूर, निहत्थे हिन्दुस्तानी मारे गए थे। इस बाग की दीवारों पर आज भी उन गोलियों के निशान दिख जाएंगे। गौर से देखेंगे तो सूख चुके खून के छींटे भी। और गौर करेंगे तो लगेगा कि ये दीवारें फुसफुसा रही हैं। जैसे कह रही हों कि इन्होंने उस शाम यहां नाइंसाफी का जो मंजर देखा था उसकी माफी इन्हें कब सुनने को मिलेगी? यह फिल्म ‘केसरी चैप्टर 2-द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ जलियांवाला बाग’ हमें वही फुसफुसाहटें सुनाने आई है।
‘केसरी 2’ का ट्रेलर रिलीज़ होने से पहले चंद ही लोगों को यह बात मालूम थी कि जलियांवाला बाग के उस नरसंहार के बाद एक भारतीय वकील ने ब्रिटिश अदालत में यह साबित किया था उस दिन जनरल डायर वहां ‘दंगे पर उतारू भीड़’ को नियंत्रित करने नहीं बल्कि निहत्थे लोगों पर एक सोची-समझी साज़िश के तहत गोलियां चलाने गया था वरना अंग्रेज़ी हुकूमत ने तो अपनी रिपोर्ट में उस भीड़ को दंगाई और आतंकी करार देते हुए जनरल डायर को क्लीन चिट दे दी थी। वह वकील यानी सी. शंकरन नायर 1897 में कांग्रेस का अध्यक्ष रह चुका था, अंग्रेज़ी हुकूमत का इतना ज़्यादा वफादार था कि उसे ‘सर’ की उपाधि दी गई थी। लेकिन जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद उसने अपना रास्ता बदल लिया था। यह फिल्म हमें उसे इसी बदले हुए रास्ते पर चलते हुए दिखाने आई है।
हालांकि ऐतिहासिक तथ्यों के नज़रिए से देखें तो ‘केसरी 2’ कहीं नहीं ठहरती। जलियांवाला बाग का वह केस असल में कई साल बाद लंदन में लड़ा गया था। शंकरन का उस केस में इन्वॉल्व होने का कोई और कारण था। और भी बहुत कुछ है जो इतिहास की किताबों में दर्ज है लेकिन इस फिल्म में नहीं है और बहुत कुछ ऐसा इस फिल्म में है जो कभी हुआ ही नहीं। लेकिन यह फिल्म शुरू में ही कह देती है कि यह सत्य घटनाओं से प्रेरित ज़रूर है मगर इतिहास होने का दावा नहीं करती। वैसे भी इतिहास के दरवाजे डॉक्यूमैंट्री फिल्मों से खुलते हैं। ऐसी फिल्मों में तो खिड़कियां होती हैं जिनसे इतिहास के भीतर झांका भर जाना चाहिए। यह फिल्म हमें उन खिड़कियों से इतिहास की वही झलकियां दिखाने आई है।
यह फिल्म लिखी बहुत कायदे से गई है। जलियांवाला बाग की लोमहर्षक घटना दिखाने और शंकरन नायर का हल्का-सा परिचय देने के बाद फिल्म की कहानी अदालत में जा पहुंचती है और उसके बाद पूरी फिल्म में जो कोर्टरूम ड्रामा परोसा गया है उसे दर्शक दम साधे देखता रहता है। फिल्म के प्रभावी संवादों ने इसका असर और गहरा ही किया है। निर्देशक करण सिंह त्यागी ने पूरी फिल्म पर अपनी पकड़ बनाए रखी है। वह कहीं बहुत ज़्यादा ओवर नहीं हुए और ज़रूरत भर कहते व दिखाते हुए अपना असर छोड़ते चले गए। नरसंहार के दृश्य ‘सरदार उधम’ सरीखे भले ही न हों लेकिन आपकी छाती पर प्रहार करते हैं। और भी कई सीन हैं जो ज़ेहन पर करारा वार करते हैं। सच तो यह है कि यह फिल्म एक नहीं कई वार करने आई है।
(रिव्यू-गर्व कीजिए ‘सरदार उधम’ पर)
कसे हुए संपादन का भी फिल्म को भरपूर साथ मिला और यही कारण है कि मसाबा गुप्ता (नीना गुप्ता की बेटी) वाले एक गाने के अलावा पूरी फिल्म में पर्दे से आंखें हटाने का मन नहीं करता। इस गाने को छोड़ कर बाकी के गाने भी उम्दा हैं। पिछली वाली ‘केसरी’ के ‘तेरी मिट्टी में मिल जावां…’ की गूंज है तो इस बार ‘ओ शेरा…’ की दहाड़ भी है। कैमरा, लोकेशन, कॉस्ट्यूम, सैट्स आदि मिल कर सौ बरस पहले का माहौल जीवंत करते हैं। हल्की-फुल्की कमियां भी दिखती हैं। अप्रैल महीने में पंजाब में तिल वाली गज्जक नहीं बिका करती। माधवन को किसी ने टोका भी नहीं कि वह जलियांवाला को ‘जलियानवाला’ और ‘जलियनवाला’ व डंडा को ‘दंडा’ बोल रहे हैं। लेकिन इन सबसे फिल्म की आत्मा प्रभावित नहीं होती। फिल्म का अंत देख कर तो लगता है कि यह दर्शकों की आत्मा को कचोटने आई है।
अक्षय कुमार केरलवासी की बजाय पंजाबी ही लगे। लेकिन उनके काम में समर्पण, ईमानदारी और गहराई दिखी-इतनी कि इस बार कोई बड़ा पुरस्कार उन्हें मिल जाए तो विलाप नहीं होना चाहिए। आर. माधवन ने अंडरप्ले करते हुए अपने किरदार को असरदार बनाए रखा। अनन्या पांडेय, रेजिना कसांद्रा और अमित स्याल ने प्रभावी अभिनय किया। कृष राव, जयप्रीत सिंह समेत बाकी कलाकारों का काम भी अच्छा रहा। फिल्म का नाम ‘केसरी चैप्टर 2’ रखने की कोई वजह नहीं थी। जलियांवाला बाग नरसंहार से जुड़ा कोई नाम बेहतर होता क्योंकि असल में तो यह फिल्म हमें उस नरसंहार से जुड़े एक सच का पता बताने आई है।
(रिव्यू-निश्चय कर जीतने की कहानी कहती ‘केसरी’)
जलियांवाला बाग में उस शाम जो हुआ वह हम हिन्दुस्तानियों के सीने में एक ऐसी फांस की तरह अटका पड़ा है कि अगर कल को ब्रिटिश हुकूमत हमें सॉरी बोल भी दे तो भी हमारा ज़ख्म नहीं भरेगा। ये ज़ख्म बने रहने चाहिएं ताकि हमारी आने वाली नस्लें इस सच से रूबरू हो सकें कि मुफ्त में मिली जिस आज़ादी को वे सस्ता समझ बैठे हैं उसे पाने के लिए हमारे पूर्वजों ने कितने ज़ख्म पाए थे। यह फिल्म असल में उन ज़ख्मों को भरने नहीं कुरेदने आई है।
‘केसरी 2’ खत्म होती है तो पर्दे पर उन सैंकड़ों शहीदों के नाम आने लगते हैं जो उस दिन वहां मारे गए। गौर कीजिएगा, इस समय आपकी मुट्ठियां भिंची हुईं और गीली होंगी। एक गीलापन आपकी आंखों में भी होगा। यह फिल्म इस गीलेपन के ज़रिए आपके भीतर मौजूद भारतवासी को भिगोने आई है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-18 April, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
बहुत ही उत्कृष्ट रिव्यू। रिव्यू पढ़ने की जरूरत इसलिए भी है, कि यदि दर्शक फिल्म में इतिहास के तथ्यों को देखने पर समझ नहीं पाए, तो वे आपके रिव्यू के माध्यम से अच्छे से समझ सकते हैं। बहुत खूब।
धन्यवाद… आभार…
Good Theme and based on the facts…. No words for any adverse remarks……
सर आपकी समीक्षा बहुत प्रभावशाली है👏👏👏✨✨🍀
धन्यवाद…