-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘हर फैमिली में प्रॉब्लम होती हैं पर वो खुशनसीब हैं जिनकी कोई फैमिली होती है…।’
आप कहेंगे कि ‘कपूर एंड सन्स’ की समीक्षा में ‘प्रेम रतन धन पायो’ का डायलॉग क्यो?
दरअसल इस फिल्म की कहानी भी फैमिली प्रॉब्लम्स के इर्द-गिर्द ही घूमती है जो बताती है कि अपनी ईगो के चलते दूसरों की गलतियों को माफ और अपनी गलतियों को स्वीकार न करने में हम लोग अक्सर इतनी देर लगा देते हैं कि हमारा आज कड़वाहट में बीतने लगता है और आने वाला कल पछतावे में।
कपूर परिवार में बहुत सारे झगड़े हैं। लेकिन इनके दरम्यां एक जुड़ाव भी है। बुजुर्ग दादा जी की इच्छा है कि मरने से पहले वह पूरे परिवार के साथ एक फैमिली फोटो खिंचवाएं। लेकिन इनकी उलझनें हैं कि सुलझते-सुलझते फिर से उलझने लगती हैं और उलझते-उलझते सुलझ जाती हैं।
करीब चार साल पहले ‘एक मैं और एक तू’ बना चुके निर्देशक शकुन बत्रा इस बार न सिर्फ पहले से काफी मैच्योर कहानी लेकर आए हैं बल्कि उन्होंने इसे बनाने में भी काफी परिपक्वता दिखाई है। कहानी के ताने-बाने कई जगह देखने वालों को खुद से बांधते हैं और यही इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी है कि यह आपको कहीं न कहीं अपनी और अपनों की कहानी लगती है। इसीलिए कुछ एक जगह ‘फिल्मीपन’ होने, कभी लाउड तो कभी बहुत स्लो हो जाने और जरूरत से ज्यादा लंबी होने के बावजूद यह फिल्म देखी जानी चाहिए।
रजत कपूर और रत्ना पाठक शाह अपने किरदारों में पूरी तरह समाए नजर आते हैं। फवाद खान अपनी पिछली फिल्म ‘खूबसूरत’ से हट कर मिले रोल में चौंकाते हैं। सिद्धार्थ मल्होत्रा अपनी एक्टिंग की सीमित रेंज के चलते कई जगह काफी कमजोर लगे। आलिया भट्ट न सिर्फ प्यारी लगती हैं बल्कि अपने किरदार को कायदे से कैरी भी करती हैं। नब्बे की उम्र में भी जिंदादिल दादू के रोल में ऋषि कपूर अपने प्रोस्थेटिक मेकअप के बावजूद सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं। संगीत अच्छा है। युवाओं को लुभाने वाला ‘लड़की ब्यूटीफुल कर गई चुल्ल…’ तो हर तरफ बज ही रहा है।
चलते-चलते : ‘मेरे मॉम-डैड एक प्लेन क्रैश में मारे गए…’ यह डायलॉग हिन्दी फिल्मों में जितनी बार बोला जा चुका है उतने प्लेन हादसे तो पूरी दुनिया में नहीं हुए होंगे। कुछ नया तरीका खोजो फिल्म वालो, हीरोइन को अनाथ करने का।
अपनी रेटिंग-तीन स्टार
(नोट-इस फिल्म की रिलीज़ के समय मेरा यह रिव्यू किसी अन्य पोर्टल पर छपा था)
Release Date-18 March, 2016
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)