-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
कालीधर अब कुछ-कुछ भूलने लगा है। उससे छुटकारा पाने के लिए छोटे भाई उसे मेले में छोड़ आते हैं। लेकिन ज़मीन पाने के लिए अब वह उसे तलाश भी रहे हैं। मगर कालीधर वापस नहीं आना चाहता। अब वह के.डी. बन कर आठ बरस के एक नए अनाथ दोस्त बल्लू के साथ मिल कर अपनी अधूरी ख्वाहिशें पूरी कर रहा है। एक दिन वह लौटता है और…!
2019 में आई एक तमिल फिल्म ‘के.डी.’ के इस रीमेक (Kaalidhar Laapata) को उसी फिल्म की डायरेक्टर मधुमिता ने बनाया है। मूल फिल्म में 80 साल का एक बूढ़ा करुप्पू दुरई यानी के.डी. था जो तीन महीने से कोमा में था। एक दिन उसे होश आया और उसने सुन लिया कि उसके परिवार वाले उसे मारने का प्लान बना रहे हैं तो वह घर से भाग गया और एक आठ साल के अनाथ बालक कुट्टी के साथ मिल कर अपनी अधूरी इच्छाएं पूरी करने लगा जिनमें एक ख्वाहिश भर-भर के चिकन बिरयानी खाने की भी थी।
तमिल फिल्म की कहानी में तर्क दिखता है। 80 साल का बूढ़ा जो कोमा में पड़ा है, उससे छुटकारा पाने के लिए घरवाले उसकी ज़िंदगी पर फुल स्टॉप लगाने की साज़िश करें तो समझ आता है। लेकिन यहां जवान भाई है, वह भी हट्टा-कट्टा। याद्दाश्त भूलने की शुरुआती सीढ़ी पर खड़े बड़े भाई से छुटकारा पाने की ऐसी क्या जल्दी कि उसे मेले में छोड़ दिया जाए। और मेला भी कौन-सा, कुंभ का। यानी फिल्म बता रही है कि कुंभ में आप अपने घर के बड़ों को छोड़ कर आ सकते हैं। यही नहीं फिल्म यह भी दिखाती है कि कालीधर भोपाल के पास भोजपुर के विश्व प्रसिद्ध शिव मंदिर में सोता है, मंदिर में झाड़ू लगाता है लेकिन खाने के लिए चिकन बिरयानी वाले के पास जाता है। तमिल से हिन्दी में कहानी को कन्वर्ट करते हुए लेखकों के दिमाग की बत्तियां अक्सर ऐसे ही मोड़ों पर आकर फ्यूज़ हो जाती हैं। एक जबरन ठूंसा गया सीन और भी है जो दिखाता है कि भंडारे के लिए आने वाला चावल पंडित जी के घर पर जाता है। कत्तई एजेंडा परोस दो पत्तल पर।
फिल्म की लिखाई सिरे से पैदल है। अपने भाई-बहनों को पढ़ा-लिखा कर बड़ा करने वाला कालीधर अंगूठा छाप है, फोन तक नहीं है उसके पास। हमेशा कंबल क्यों लपेटे रहता है? गुमशुदा लोगों को तलाशने वाला सरकारी बाबू अपना अलग ही राग अलाप रहा है और कालीधर को तलाशने के लिए जगह-जगह घूम रहा है। इधर कालीधर अचानक देवदास हो जाता है और अपनी पारो के घर जा पहुंचता है। उसकी याद्दाश्त भी बराबर बनी रहती है। बिरयानी तो वह ऐसे खाता है कि उसे खाते हुए देखने वाले भी बिरयानी पर टूट पड़ें। और भी ढेरों चीज़ें हैं इस फिल्म (Kaalidhar Laapata) में जो बताती हैं कि जबरन रीमेक बनाने के लिए कहानी को कैसे कूट-पीस-छान कर उसका कचूमर बनाया जाता है।
मधुमिता का निर्देशन भी बेहद हल्का है। उन्हें प्रभावी दृश्य ही बनाने नहीं आए। मूल फिल्म की कहानी को हूबहू दिखा देतीं तो शायद बेहतर कर पातीं। संवाद कहीं-कहीं बहुत भारी रहे जो फिल्म के हल्केपन से मेल न बिठा सके। खासतौर से आठ साल के बच्चे का किरदार काफी मैच्योर दिखाया गया। बच्चों को बच्चा दिखा पाना वैसे भी हमारे फिल्म वालों को कम ही आता है।
अभिषेक बच्चन ने अपने किरदार में पैठ बनाई है। दैविक वाघेला ने बल्लू के रोल में उम्दा अभिनय किया। मौहम्मद ज़ीशान अय्यूब, निमरत कौर ठीकठाक रहे। बाकी सब भी साधारण ही रहे। जब किरदारों में ही दम न हो, सीन ही कायदे से न लिखे गए हों तो कोई क्या ही कर लेगा। गीतों के बोल कहीं-कहीं बेहतर हैं, संगीत हल्का रहा। फिल्म कहना क्या चाहती है, यह इसलिए भी उभर कर नहीं आ पाता क्योंकि इसे बनाने वाले खुद ही कन्फ्यूज़ रहे हैं। पौने दो घंटे की फिल्म (Kaalidhar Laapata) बुरी तरह से बोर करती है, सो अलग। मध्यप्रदेश सरकार से सब्सिडी पाने के फेर में बनाई गई इस किस्म की हल्की फिल्म देख कर तरस आता है जिसमें कहानी, मैसेज, मनोरंजन सब लापता हों। ज़ी-5 क्या सोच कर ऐसी फिल्मों को फंड देता है, निखिल आडवाणी जैसा बड़ा निर्माता क्या सोच कर ऐसी फिल्म से जुड़ता है, ये सवाल भी मन में उठते हैं जिनके जवाब यह फिल्म नहीं दे पाती।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-4 July, 2025 on ZEE5
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
असल वाली KD देखी है… सो ये तो उसके पासन भी नहीं….
रिव्यु कटाक्ष भरा औऱ परिपूर्ण है….
धन्यवाद