-दीपक दुआ…
2007 में आई अनुराग बसु की ही फिल्म ‘लाइफ इन ए… मैट्रो’ (Life In A… Metro) की तरह इस फिल्म ‘मैट्रो… इन दिनों’ (Metro… In Dino) में भी कई सारी कहानियां एक साथ चल रही हैं। बोरियत भरी शादीशुदा ज़िंदगी के बीच मोंटी घर से बाहर झांकता है और उसकी पत्नी काजोल उसे नचाती है। काजोल की छोटी बहन चुमकी अपने रिश्ते को लेकर कन्फ्यूज़ है। उसके करीब आया पार्थ तो किसी रिश्ते में ही नहीं पड़ना चाहता। पार्थ के दोस्त श्रुति और आकाश अपनी शादी, बच्चे और कैरियर के संघर्षों में उलझे हुए हैं। उधर काजोल की मां एक बार फिर अपने कॉलेज के दोस्त परिमल के पास जा पहुंची है। साथ ही परिमल की बहू और काजोल की बेटी की अलग-अलग कहानियां भी चल रही हैं।
‘लाइफ इन ए… मैट्रो’ जहां मुंबई शहर के कुछ जोड़ों को दिखा रही थी वहीं इस फिल्म ‘मैट्रो… इन दिनों’ (Metro… In Dino) में अनुराग की कलम ने मुंबई के अलावा दिल्ली, बंगलुरु, पुणे, कोलकाता जैसे शहरों में कहानी का विस्तार किया है जो दर्शाता है कि स्त्री-पुरुष संबंधों की उलझनें और सुलझनें कमोबेश हर जगह एक-सी हैं। अलग-अलग किस्म के किरदारों के ज़रिए वह इस बात को भी उभार पाते हैं कि रिश्तों की पेचीदगियां हर इंसान के खाते में दर्ज होती हैं। फिल्म में एक बात खास तौर पर उभर कर आती है कि रिश्तों में पारदर्शिता और संवादों की कमी से बात बिगड़ती है तो संभालने से संभल भी जाती है, बस कोशिशें जारी रहें।
आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में अपनों को छोड़ने, साथ रहने की मजबूरी में पिसते रहने, बाहर ताकझांक करने की खुराफातों, त्याग, समर्पण, कन्फ्यूज़न जैसी मनोदशाओं का जैसा खूबसूरत चित्रण पिछली वाली फिल्म ‘लाइफ इन ए… मैट्रो’ में था, यह फिल्म ‘मैट्रो… इन दिनों’ (Metro… In Dino) भी इस मामले में उसके बराबर जा खड़ी होती है। और यह फिल्म कोई सीक्वेल नहीं है, बल्कि उस फिल्म के फ्लेवर को पकड़ कर वैसे ही दायरे में खड़े किरदारों की कहानियां कहती है जो बताता है कि इंसान तकनीक या पैसे के मामले में चाहे जितना आगे बढ़ जाए, अपने मन की उलझी सुतलियों को सुलझा पाने में वह अभी भी कच्चा है। उस फिल्म की तरह इस फिल्म की लिखाई भी शानदार है। ऐसी कसी हुई स्क्रिप्ट कि आप एक सीन तो क्या, एक संवाद न छोड़ सकें। और संवाद भी ऐसे जो कानों में उतरें तो कभी दिल में जा पहुंचें तो कभी यू-टर्न लेकर दिमाग में। कहानी-पटकथा के लिए अनुराग और संवादों के लिए सम्राट चक्रवर्ती व संदीप श्रीवास्तव तालियां पाने के हकदार हैं।
अनुराग ने अपने बेहद सधे हुए निर्देशन से फिल्म ‘मैट्रो… इन दिनों’ (Metro… In Dino) को ऐसा दर्शनीय बनाया है कि आप शुरू से अंत तक उनके रचे मायाजाल का हिस्सा बने रहते हैं। अपनी बेहद शानदार, मगर बॉक्स-ऑफिस पर नोट न बटोर सकी फिल्म ‘जग्गा जासूस’ के निर्देशन में उन्होंने जो एक्सपेरिमैंट किए थे, उन्हें यहां भी किया गया है और इस बार यह कहानी में ऐसा रच-बस गया है कि सुगंध फैलाता है। लाइट्स, सैट्स, लोकेशंस, स्पेशल इफैक्ट्स, कॉस्ट्यूम, पार्श्व-संगीत, संपादन और इन सबसे ऊपर कैमरे की अद्भुत कारीगरी जैसे तमाम तकनीकी पक्षों के बेजोड़ मेल से बनी यह फिल्म तसल्ली से देखने लायक है, ठीक वैसे, जैसे अनुराग बसु की हर फिल्म होती है। इन्हें देखते हुए आप पॉपकॉन, वॉशरूम, मोबाइल, बगल में बैठे साथी वगैरह में उलझे तो कुछ खोएंगे ही।
(रिव्यू-लुभाती है सुहाती है जग्गा की जासूसी)
इस फिल्म ‘मैट्रो… इन दिनों’ (Metro… In Dino) के गीत-संगीत की विशेष चर्चा होनी चाहिए। अनुराग बसु की फिल्मों में वैसे भी म्यूज़िक का सम्मानजनक स्थान होता है। 2007 वाली ‘लाइफ इन ए… मैट्रो’ की तरह इस बार भी संगीतकार प्रीतम अपने बैंड के साथ बार-बार पर्दे पर आकर सुरों का ऐसी शीतल व सुगंधित बौछार करते हैं कि आप सराबोर हो उठते हैं। गानों, धुनों के लिए इस फिल्म पर पुरस्कार बरसने चाहिएं।
‘मैट्रो… इन दिनों’ (Metro… In Dino) के हर कलाकार को उसके अभिनय की रेंज के मुताबिक किरदार देने और उससे सधा हुआ अभिनय करवाने के लिए भी अनुराग बसु की तारीफ होनी चाहिए। दर्शक चाहें तो अपनी पसंद के मुताबिक भले ही किसी कलाकार को ज़्यादा या कम आंकें, सच यह है कि इन कलाकारों की तरफ से कोई कमी नहीं रही और फिल्म में कम से कम एक बार हर किसी को जब अपना चरम दिखाने का मौका मिला तो वह बिल्कुल भी नहीं चूका। पर्दे पर इम्तियाज़ अली और खुद अनुराग बसु का आना सुहाता है।
रिश्तों की जटिलताओं पर बनी फिल्में अक्सर भारी हो जाती हैं। पिछली वाली ‘लाइफ इन ए… मैट्रो’ से यह शिकायत थी। लेकिन इस फिल्म ‘मैट्रो… इन दिनों’ (Metro… In Dino) में ऐसा नहीं हुआ है। किरदारों का चुटीलापन और बार-बार आते हास्य के क्षण राहत लाते हैं। अनुपम खेर की बहू वाले ट्रैक को थोड़ा और प्यार से हैंडिल किया जाता व कोंकणा की बेटी वाला ट्रैक ज़िक्र भर के लिए होता तो फिल्म और सध सकती थी।
इस फिल्म ‘मैट्रो… इन दिनों’ (Metro… In Dino) के ही एक संवाद में कहूं तो इसे देख कर ‘खगुसा’ महसूस होता है। ‘खगुसा’ बोले तो खुशी, गम और गुस्सा-एक साथ। बाकी, मस्त पवन-सी है यह फिल्म, जिसे देखेंगे तो इसकी रौ में बहेंगे। नहीं देखेंगे तो बहुत कुछ मिस करेंगे… बहुत कुछ…!
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-4 July, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
अब तो देखना बनता है, ऐसी फिल्में बहुत भाती हैं जो रियल लाइफ की पेचीदगियों पर बनी हों।☺️
बहुत ही सटीक और कम शब्दों में आपने अच्छी समीक्षा की है।
धन्यवाद
कमाल का अक्षर हगुसा….
भड़दौड़ की ज़िन्दगी की उलझनों को सरोबार करती.. ये फ़िल्म.. हर उम्र क़े लिहाज़ से एकदम सटीक बैठती है… औऱ देखने लायक़ है..
फुल पैसा वसूल..