-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
पुरानी दिल्ली की तंग गलियों को तो ‘दिल्ली 6’, ‘क्वीन’, ‘जन्नत’, ‘पी के’, ‘बजरंगी भाईजान’, ‘सात उचक्के’ जैसी कई फिल्मों में दिखाया गया लेकिन इस इलाके, यहां के किरदारों और इन गलियों की असल ज़िंदगी को हूबहू दिखाने का काम कम ही हुआ है। ‘दिल्ली 6’ में ज़रूर यह सब बेहतर ढंग से था। अनामिका हकसर की यह फिल्म ‘घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हूं’ पुरानी दिल्ली की इन्हीं तंग गलियों को खंगालते हुए यहां के कुछ ऐसे किरदारों की ज़िंदगी में झांकने का प्रयास करती है जिन्हें सिनेमा ने ही नहीं बल्कि समाज ने भी ऐसे हाशिये पर रख छोड़ा है कि इनके वजूद तक को नहीं स्वीकारा जाता।
कई सारे किरदारों के जीवन के कई सारे हिस्सों का कोलाज है इस फिल्म में। हर किसी की अपनी कहानी, अपनी बेबसी। एक हवेली के बाहर कचौड़ी तलने वाले छद्दामी को वहां से हटना पड़ा क्योंकि अब वहां मॉल बनेगा। टूरिस्ट को नफीस उर्दू में पुरानी दिल्ली की हैरिटेज वॉक करवाने वाला आकाश जैन। शादियों में बैंड बजाने और लोगों की जेबें काटने वाला पतरू एक दिन तय करता है कि वह टूरिस्ट को इन गलियों की असल और सच्ची ज़िंदगी दिखाएगा तो किसी एन.जी.ओ. से आई लड़कियां ‘इससे बेहतर तो हम ध्रुवीय भालू को ही बचा लें’ कह कर खिसक लेती हैं। प्रवासी, बेघर मज़दूर, भिखारी, सफाईकर्मी, नशे की लत में पड़े युवक, यहां के बाशिंदे, यहां के पुलिस वाले, दुकानदार… ऐसे तमाम लोगों के ज़रिए यह फिल्म दरअसल इनके सपनों को खंगालने का काम करती है। ये इनके सपने ही तो हैं जो असल में इन्हें जीवित रखे हुए हैं। लेकिन न ये पूरे होते हैं और न ही गायब। इनकी हालत उस घोड़े जैसी है जिसका मालिक यह कहता है कि घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हूं… क्योंकि जलेबी खाना घोड़े का सपना है जो कभी पूरा होने से रहा, लेकिन इसी आस में घोड़ा चले जा रहा है।
अनामिका हकसर की परवरिश रंगमंच पर हुई है। यही कारण है कि उनकी बनाई इस फिल्म में रंगमंचीय शैली और प्रभाव ‘बुरी तरह से’ हावी रहा है। ‘बुरी तरह से’ इसलिए क्योंकि जब आप ‘सिनेमा’ बनाते हैं तो उसकी अपनी शैली, अपनी जुबान होती है। लेकिन यह फिल्म प्रयोगधर्मी होते हुए अपने भीतर सिनेमाई जुबान के साथ-साथ रंगमंचीय शैली को तो जोड़ती ही है, कहीं-कहीं डॉक्यूमैंट्री भी बन जाती है। फिर इसमें ढेर सारा ऐनिमेशन भी डाला गया है जो इसे एक अलग ही रंगत देता है। इसकी यह पैकेजिंग इसे एक अलग जगह पर ले जाकर खड़ा करती है। एक ऐसी जगह, जहां यह अति प्रयोगधर्मी, अति बुद्धिजीवी दर्शकों को तो फिर भी पसंद आ सकती है लेकिन हर किसी दर्शक को नहीं।
सिनेमाई कला को अलग नज़र से देखने वालों को इस फिल्म में किसी कविता या पेंटिंग के दीदार हो सकते हैं। लेकिन सच यह है कि यह कविता अतुकांत है और पेंटिंग उस मॉडर्न आर्ट की तरह जो कम ही लोगों की समझ में प्रवेश कर पाती है। अनामिका अपनी इस पहली फिल्म को कुछ सरल, कुछ सहज रखतीं तो यह ज़्यादा अच्छे से जज़्ब की जा सकती थी। ‘फेस्टिवल सिनेमा’ देखने के शौकीन दर्शक चाहें तो इस दुरूह किस्म की फिल्म को अपने करीबी थिएटरों में खोज और देख सकते हैं जिसमें उम्दा कैमरा वर्क के साथ-साथ रघुवीर यादव, लोकेश जैन और रवींद्र साहू की एक्टिंग भी बहुत बढ़िया है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-10 June, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)