-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
दिल्ली से सटा नोएडा और उससे सटा ग्रेटर नोएडा। अपने परिवार संग रहती डॉली। बिहार से उसकी कज़िन किट्टी भी आ बसी उसके यहां। दोनों उड़ना चाहती हैं। अपनी अधूरी तमन्नाएं, दमित इच्छाएं पूरी करना चाहती हैं। करती भी हैं और नारी ‘मुक्त’ हो जाती है।
राईटर-डायरेक्टर अलंकृता श्रीवास्तव अपनी फिल्मों के ज़रिए ‘नारी मुक्ति’ का झंडा उठाए रहती हैं। अपनी पिछली फिल्म ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ में भी वह यही कर रही थीं। चार औरतों की कहानी के बरअक्स उन्होंने उस फिल्म में भी नारी की अधूरी, दबी हुई इच्छाओं को दिखाने का प्रयास किया था। लेकिन तब भी और अब तो और ज़्यादा, वह अपने इस प्रयास में विफल रही हैं। और इसका कारण यह है कि अलंकृता अपने मन में यह छवि बिठा चुकी हैं कि नारी तभी ‘मुक्त’ हो सकती है जब वह पुरुष की सब बुराइयां, सारी कमियां अपना ले। उस फिल्म के रिव्यू में मैंने यही लिखा था (यहां क्लिक करें) कि ‘‘ क्या फ्री-सैक्स, शराब-सिगरेट, फटी जींस और अंग्रेजी म्यूजिक अपनाने भर से औरतें आजाद हो जाएंगी? आजादी के ये प्रतीक क्या इसलिए, कि यही सब पुरुष करता है? अगर ऐसा है तो फिर औरत यहां भी तो मर्द की पिछलग्गू ही हुईं? फिल्मकारों को नारीमुक्ति की इस उथली और खोखली बहस से उठने की जरूरत है।’’
लेकिन लगता है कि अलंकृता जैसे ‘लोग’ (फिल्मकार नहीं) इस बहस से ऊपर उठना तो दूर, इसमें पड़ना ही नहीं चाहते। ‘इन जैसे लोगों’ ने अपने मन में बस कुछ धारणाएं बना ली हैं, कुछ छवियां बिठा ली हैं और ये इसी लीक को पीटते रहते हैं, आगे भी पीटते रहेंगे। नेटफ्लिक्स पर आई इस फिल्म को एकता कपूर ने बनाया है। लेकिन इसकी बेहद उथली कहानी और उस पर रची गई थकी हुई, कन्फ्यूज़ स्क्रिप्ट देख कर हैरानी होती है कि कैसे कोई निर्माता ऐसे प्रोजेक्ट पर पैसे लगाने को तैयार हो जाता है। या फिर वह निर्माता भी इसी किस्म की भटकी हुई सोच को अपने भीतर पाले बैठा है?
इस फिल्म के सारे किरदार कन्फ्यूज़ हैं। उनके अंदर है कुछ और, लेकिन वे बाहर कुछ और जताते हैं। ये सोचते कुछ हैं, लेकिन करते कुछ और हैं। दरअसल यह कन्फ्यूज़न इस फिल्म को लिखने-बनाने वालों की ज़्यादा है जो कैमरे के ज़रिए क्रांति लाने की बात करने निकलते हैं और अपनी निजी सोच, अपने पूर्वाग्रहों के कीचड़ को पर्दे पर बिखेर देते हैं क्योंकि उन्हें पता है इस बाज़ार में इस कीचड़ के भी बहुत खरीदार मिल जाएंगे।भूमि पेढनेकर अच्छा अभिनय करती हैं। लेकिन उनकी लुक भौंडी रखी गई हैं। उन्हें ‘देखने’ का मन ही नहीं करता। कोंकणा सेन शर्मा कहीं-कहीं ही प्रभावित करती हैं क्योंकि उन्हें इस तरह का अभिनय करते हम बहुत बार देख चुके हैं। विक्रांत मैसी, अमोल पाराशर, आमिर बशीर को कायदे के रोल ही नहीं मिले। फिल्म बहुत सारे गैरज़रूरी सैक्स-दृश्य परोसती है जो इसे फौरी तौर पर बिकाऊ बना सकते हैं। असल में यह फिल्म कुछ कुंठित किरदारों की कुंठाओं की कहानी है जिसे बनाने वाले भी शायद उतने ही कुंठित हैं। इसे ज़्यादा पसंद भी वही लोग करेंगे जिनके जीवन में कुंठाएं होंगी।
‘डॉली किट्टी और वो चमकते सितारे’ जैसी फिल्में भी बनती रहनी चाहिएं ताकि दर्शकों को पता चले कि वाहियात किस्म का भटका हुआ सिनेमा क्या होता है। खराब, बासी, सड़ा हुआ सिनेमा सामने आएगा तभी तो अच्छे और पौष्टिक सिनेमा की कद्र और मांग बढ़ेगी। शुक्रिया अलंकृता, हमारे टेस्ट को सुधारने के लिए। अगर मैं रेटिंग देता तो इसे पांच खोखले सितारे मिलते।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-18 September, 2020
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)