-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
इस फिल्म के एक सीन में कहानी का नायक (भले ही यह शख्स अझेल है पर चूंकि नायिका उसे मिलती है सो नायक तो उसे ही कहना पड़ेगा) कहता है-कुछ लोग हंसाते हैं, कुछ एंटरटेन करते हैं और मैं बोर करता हूं तो क्या हुआ?
ठीक यही बात इस फिल्म के बारे में भी कही जा सकती है कि कुछ कॉमेडी फिल्में ठहाके लगाती हैं, कुछ तालियां पिटवाती हैं तो कुछ बोर भी करती हैं तो क्या हुआ?
वैसे हैरानी की बात यह है कि यह फिल्म जिस फ्रेंच फिल्म ‘ला एमरड्योर’ का रीमेक है उसमें खासी अच्छी कॉमेडी थी और उसी डायरेक्टर फ्रांसिस वेबर की फिल्म ‘ला डिनर डे कोन्स’ हिन्दी में ‘भेजा फ्राई’ के नाम से बनी थी। ‘भेजा फ्राई’ की ही तरह यह फिल्म भी एक कमरे, कुछ किरदारों और कुछ घंटों की कहानी दिखाती है। मुंबई पुलिस एक घोटालेबाज को गोआ हाइकोर्ट में पेश करने जा रही है। एक शूटर को भेजा गया है इस घोटालेबाज को मारने के लिए। कोर्ट के सामने वाले होटल में वह एक कमरा लेता है। बगल के कमरे में एक प्रैस फोटोग्राफर है जिसे इस घटना की फोटो लेनी है। यह फोटोग्राफर निहायत ही बोर किस्म का इंसान है और इसी वजह से उसकी बीवी उसे छोड़ कर जा चुकी है। बीच-बीच में होटल का पकाऊ वेटर, इस फोटोग्राफर की भूतपूर्व पत्नी, उसका वर्तमान डॉक्टर प्रेमी, शहर की पुलिस भी आती रहती है और साथ ही मुंबई से गोआ आ रही पुलिस पार्टी और उसका पीछा कर रहे पंटर भी।
इस तरह की कहानी में ज़रूरत होती है चुटीले संवादों की, बार-बार फूटने वाले कॉमिक पंचेस की और ऐसी स्क्रिप्ट की जो देखने वालों को बांध कर रख सके। लेकिन इस फिल्म में से ये तमाम चीज़ें सिरे से नदारद हैं। पर्दे पर कलाकार जिस बात पर हंस रहे हैं उसी बात पर अगर दर्शकों को हंसी नहीं आती है तो कमी फिल्म को लिखने और निर्देशित करने वालों की ही मानी जाएगी। निर्देशक जगदीश राजपुरोहित फिल्म आने से पहले यह कह रहे थे कि यह एक बिल्कुल क्लीन कॉमेडी फिल्म है जिसे एक भाई अपनी बहन के साथ और एक बेटा अपने मां-बाप के साथ बैठ कर देख सकता है। लेकिन ऐसा है नहीं। फिल्म में टॉयलेट ह्यूमर डाला गया है और वह भी काफी निचले दर्जे का। ऊपर से इस फिल्म के तमाम किरदार जैसे कसम खाकर आए हैं कि पकाएंगे, झेलाएंगे और जम कर बोर करेंगे।
कविन दवे की एक्टिंग सचमुच खराब है। मैंडी ने जिस आत्मविश्वास से अपना बदन दिखाया है उस तरह से वह एक्टिंग कर लेतीं और डायलॉग बोल पातीं तो बेहतर होता। एक शरत सक्सेना ही जंचे। संजय मिश्रा को तो आप चाहे गजोधर बना दीजिए या फिर विन्सेंट गोम्स, वह सही से काम कर जाते हैं। बाकी सब काफी हल्के रहे और यह कसूर दरअसल डायरेक्टर का है जो उन्हें कायदे के रोल देकर उनसे बढ़िया काम नहीं निकलवा पाए।
कहने को फिल्म में एक गंभीर संदेश भी है लेकिन वह कहानी से उभर कर नहीं आता बल्कि उसे सूत्रधार से कहलवाया गया है। गीत-संगीत एकदम पैदल है। पैदल तो इस फिल्म की लगभग हर चीज है-मुंबई हाइकोर्ट का गोआ में होना भी। चलिए, भूल जाते हैं इस फिल्म को।
अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार
(नोट-मेरा यह रिव्यू इस फिल्म की रिलीज़ के समय किसी अन्य पोर्टल पर प्रकाशित हुआ था।)
Release Date-30 March, 2012 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)