-दीपक दुआ…
2015 में आए अपने पहले उपन्यास ‘बनारस टॉकीज’ से ही पाठकों के चहेते लेखक बन चुके सत्य व्यास ‘दिल्ली दरबार’, ‘बागी बलिया’, ‘उफ्फ कोलकाता’, ‘1931’ जैसी अपनी कई किताबों के जरिए लगातार अपने लेखन का दायरा फैलाते रहे हैं। अपने इस नए उपन्यास ‘लकड़बग्घा’ से उन्होंने थ्रिलर के पाले में कदम रखा है और यह कहना गलत न होगा कि अपने इस पहले ही कदम में वह रोमांच पसंद करने वाले पाठकों की कसौटी पर खरे उतर चुके हैं।
साहित्य विमर्श प्रकाशन से आए इस उपन्यास की कहानी बताती है कि मुंबई शहर में कोई है जो लोगों की कनपटी पर हथौड़े का एक वार कर के उन्हें मौत की नींद सुला देता है। उसके कत्ल करने का तरीका बरसों पहले इसी शहर में खौफ का पर्याय बने उस कातिल सरीखा है जिसे ‘कनपटीमार’ नाम दिया गया था। उसका केस इंस्पैक्टर श्वेता के पास था। संयोग से इस नए कातिल ‘कनपटीमार 2.0’ का केस भी श्वेता के पास है। लेकिन तब से अब तक का वक्त बदल चुका है, रिश्ते बदल चुके हैं और खुद श्वेता भी अब पहले जैसी नहीं है। तो क्या पुलिस इस कातिल तक पहुंच पाएगी? पहुंचेगी तो कैसे? तब क्या होगा? इनसे भी बड़ा सवाल यह कि आखिर यह इंसान लोगों को क्यों मार रहा है? क्या उसकी इनसे दुश्मनी है या फिर कोई और कारण है?
इस किस्म के मर्डर-मिस्ट्री वाले उपन्यासों को लिखने का जो एक तय ट्रैक है, यह उपन्यास भी उसी पर चलता है। पुलिस अभी एक कत्ल के बिखरे धागे जोड़ने में लगी है कि दूसरा कत्ल हो जाता है। पुलिस एक-एक कदम कर के बढ़ रही है मगर कातिल उससे दो कदम आगे चल रहा है। बड़ी बात यह भी है कि इस कहानी में कातिल की पहचान छुपाई नहीं गई है बल्कि पहले ही पन्ने से बता दिया गया है कि कातिल कौन है। असल खेल तो कातिल की मंशा और उस तक पुलिस के पहुंचने का है जो बेहिसाब रोचक है और पढ़ने वालों को कस कर बांधे रखता है। इस किस्म की कहानी के लिए जरूरी तनाव, रोमांच, भय और उत्सुकता बनाए रख पाने में सत्य व्यास कामयाब हुए हैं। इस तरह की कहानियों को पढ़ते हुए जरूरी होता है कि शब्दों से उकेरे गए दृश्य पाठक की आंखों के सामने किसी फिल्म की भांति चलें। इस प्रयास में भी यह उपन्यास सफल रहा है और इसे किसी फिल्म आदि में रूपांतरित होते देखना दिलचस्प होगा। लेकिन किसी चतुर फिल्मी लेखक की तरह सत्य व्यास ने इसके अगले भाग (या भागों) के लिए जो संभावनाएं छोड़ी हैं उससे इसे पढ़ने के बाद मिलने वाली संतुष्टि में कमी आई है। कुछ किरदारों की बैक-स्टोरी देकर इसे विस्तार दिया जाना चाहिए था। अंत अपूर्ण-सा लगता है। ‘आप भावनाओं से खेलते हैं? वो आपसे खेलेगा’ की टैग लाइन के साथ आए इस उपन्यास की कहानी लेखक को मुकम्मल करनी चाहिए थी।
इस उपन्यास को पढ़ते समय इसे लेकर की गई लेखक की रिसर्च और गहन अध्ययन का आभास होता है। लेकिन यह कमियों से परे भी नहीं है। पुलिस डिपार्टमैंट के ढांचे और कार्यप्रणाली में हल्की चूक स्पष्ट दिखती है। थ्रिलर में आप तर्कों से खिलवाड़ नहीं कर सकते लेकिन इसमें कहीं-कहीं तार्किक चूकें भी हैं। दो-एक जगह भाषा गड़बड़ाई है-लेखक की और उनके रचे किरदारों की भी। कहीं-कहीं प्रूफ की गलती भी दिखी है। सत्य व्यास को हिन्दी के उपन्यास लिखते समय गाढ़ी उर्दू के प्रति अपने मोह से भी बचना चाहिए। उन्हें समझना होगा कि हिन्दी के अधिकांश पाठक ‘मुबालगे’ और ‘तनकीद’ के अर्थ तो नहीं ही जानते होंगे। यूथनेशिया के लिए भी हमारे पास इच्छा-मृत्यु जैसा सार्थक शब्द मौजूद है ही।
(नोट-मेरी लिखी इस पुस्तक-समीक्षा के संपादित अंश ‘प्रभात खबर’ समाचार-पत्र में दिनांक 18 अगस्त, 2024 को प्रकाशित हुए हैं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
बढिया समीक्षा दीपक भाई …मै पढ तो कब का चुका हू पर कुछ लिख नही पाया इस किताब पर अब तक
धन्यवाद भाई साहब