-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘प्रहार’ में मेजर चव्हाण मुंबई में गुंडों को मार डालते हैं और अदालत में कहते हैं कि मैं फौजी हूं, मेरा काम है लड़ना, अगर जंग के मैदान बदल जाते हैं तो इसमें मैं क्या कर सकता हूं। इस फिल्म ‘वेदा’ का एक्स मेजर अभिमन्यु तंवर (जिसे फिल्म में तनवर कहा गया है) भी यही कहता है कि झगड़ना नहीं आता मुझे, सिर्फ जंग लड़नी आती है।
राजस्थान के बाड़मेर इलाके का कोई गांव। ऊंची जाति के लोगों का आतंक। नीची जाति वाले भयभीत। कोई विवाद हो तो फैसला करने का हक स्थानीय ‘बैठक’ के प्रधान जी को। प्रधान जी का छोटा भाई गुंडा-मवाली। नीची जाति की लड़की वेदा ने आवाज़ उठानी चाही तो हल्ला हो गया। आर्मी का पूर्व मेजर वेदा के साथ है तो खून-खराबा होगा ही और जीतेगी भी वेदा ही।
समाज की किसी कुरीति पर आधारित विषय में एक्शन का ज़बर्दस्त तड़का लगाती कहानी हो तो उसका असर दुगुना हो जाता है। ऐसा करने से एक तरफ तो बौद्धिक दर्शकों के लिए सामाजिक मैसेज निकल कर आता है और दूसरी तरफ आम दर्शकों के लिए मार-कुटाई का मनोरंजन। यह फिल्म यही पैंतरा चलती है। इस काम में यह पूरी तरह तो नहीं, काफी हद तक सफल होती हुई ‘दिखती’ भी है क्योंकि एक तो आपको दलित परिवार पर हो रहे अत्याचार देख कर उनसे हमदर्दी होती है और दूजे उस लड़की और उसके रक्षक का पलटवार देख कर सुकून मिलता है। लेकिन जब आप इस फिल्म, इसकी कहानी, पटकथा और किरदारों के बारे में तसल्ली से विचार करते हैं तो लगता है कि ऊपर से भरी-पूरी ‘दिख’ रही यह फिल्म दरअसल अंदर से उतनी ताकतवर नहीं है।
कहानी बुरी नहीं है। दबंगों की दबंगई और हाशिये पर बैठे लोगों पर अत्याचार विश्व के हर समाज की कड़वी सच्चाई है। लगातार कुचले जा रहे ऐसे किसी शख्स का दबंगों के खिलाफ सिर उठाना भी यदा-कदा सुनने-देखने में आ जाता है। दिक्कत इस फिल्म की स्क्रिप्ट के साथ है जो अपने किरदारों को गढ़ने और घटनाओं को फैलाने में इस कदर घिसे-पिटे ट्रैक पर चलती है कि यह सोच कर अफसोस होता है कि यह सब असीम अरोड़ा जैसे स्थापित लेखक की कलम से निकला हुआ है। गांव-कस्बे का माहौल, दबंगों की हरकतें, उनकी सोच, किसी का सिर उठाना, उसका कोई रक्षक, पूर्व फौजी का बैकग्राउंड, इनका भागना, पीछे-पीछे दबंगों की सेना जैसे घटनाक्रम न जाने कितनी सारी फिल्मों में देखे-दिखाए जा चुके हैं। इसे देखते हुए कभी ‘राउडी राठौड़’, कभी ‘मिर्ज़ापुर’, कभी ‘अफवाह’ जेहन में घूमती हैं।
फिल्म के मैसेज की बात करें तो यह बताती है कि किसी की भी गुंडागर्दी से ऊपर संविधान है जिसकी शरण में आकर कोई भी निर्भय हो सकता है। लेकिन क्लाइमैक्स की हिंसा से इस फिल्म को बनाने का मूल मकसद ही कटघरे में जा खड़ा होता है। हां, एक्शन ज़ोरदार है। पर्दे पर मारधाड़ देखने की चाह रखने वाले इस फिल्म को पसंद करेंगे।
रही बात निखिल आडवाणी के निर्देशन की, तो उन्होंने अपना पूरा ध्यान सीन बनाने पर लगाया है, फिल्म बनाने पर नहीं। इसीलिए बहुत सारी जगहों पर सीन काफी लंबे हुए हैं, बोर करते हैं, उपदेश पिलाते हैं और अंत आते-आते यह फिल्म सीट छोड़ कर भागने पर मजबूर करने लग जाती है।
वेदा बनी शरवरी प्रभावशाली अभिनय करती हैं। जॉन अब्राहम कम बोलने और ज़्यादा पीटने वाले शख्स के रोल अच्छी तरह से करते आए हैं सो कुछ नया नहीं है। खलनायक बने अभिषेक बैनर्जी, आशीष विद्यार्थी, क्षितिज चौहान एंड पार्टी अपने काम को सही से अंजाम देती है। बाकी लोगों में राजेंद्र चावला, कुमुद मिश्रा आदि सही रहे हैं। दो पल को आई तमन्ना भाटिया बिल्कुल भी नहीं जंचीं। गाने-वाने सही ही हैं, कुछ खास नहीं।
दरअसल ऐसी फिल्में आपको आंदोलित करने की बजाय उद्वेलित करने के फौरी मकसद से बनाई जाती हैं ताकि किसी छुट्टी के मौके पर आकर नोट कमा सकें। यह फिल्म इस मकसद में भले ही कामयाब हो जाए, दिल जीतने वाले सिनेमा की कतार में तो यह बिल्कुल भी खड़ी नहीं हो पाएगी।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-15 August, 2024 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
जबरदस्त…… रिव्यु पढ़कर एक बार तो लगा कि कोई साउथ की फ़िल्म की कहानी हैँ……
चलो अच्छा हैँ की बॉलीवुड क़े पास आजकल भी ऐसे टॉपिक हैँ… जिनपर कि फ़िल्में बनाई जा रही हैँ.
रिव्यु एकदम झक्कास