-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
फिल्म के पहले सीन में लड़का-लड़की घर छोड़ कर भाग रहे हैं। लड़का 25 की उम्र में ‘कुछ नहीं’ करता है। बाद में पता चलता है कि ‘कुछ नहीं’ करना उसका खानदानी काम है क्योंकि उसके पिता भी ‘कुछ नहीं’ करते हैं और उसका एक मामा भी अपनी बहन के घर में ‘कुछ नहीं’ करता है। यानी यह लड़का दिमाग से पैदल यानी डंब है क्योंकि लड़की को वह कहां ले जाएगा, कैसे रखेगा, यह उसे नहीं पता। अचानक से लड़की को ख्याल आता है कि उसके यूं भागने से कहीं उसके पिता खुदकुशी न कर लें सो वह गाड़ी घुमाने को कहती है। यानी यह ‘पापा की परी’ भी दिमाग से डंब है। एक डंब लड़की ही किसी 25 साल के बेरोज़गार लड़के के साथ शादी करने के इरादे से घर से भाग सकती है। एक बात और-इन दोनों डंब लोगों में प्यार कैसे हुआ और क्यों टिका हुआ है, यह पूरी फिल्म में न तो बताया गया, न दिखाया गया और न ही महसूस करवाया गया। खैर, थोड़ी ही देर में हमें पता चलता है कि इन दोनों के घरवाले भी इनकी तरह डंब हैं क्योंकि लड़की का बाप ‘एक महीने में सरकारी नौकरी ले आओ, मेरी लड़की ले जाओ’ जैसी डंब शर्त रखता है जिसे उसकी डंब लड़की बढ़वा कर दो महीने करवा देती है। मोहलत का वक्त निकलने के बाद जिस लड़के से वह अपनी लड़की का विवाह करवाने को तैयार होता है, उसकी डंब हरकतें देख कर लगता है कि यह बाप है या लप्पूझन्ना…!
आप कह सकते हैं कि लड़के-लड़की की चुटीली लव-स्टोरी और शादी के इर्दगिर्द घूमने वाली फिल्मों में इसी तरह के अतरंगी किरदार होते हैं, उनकी इसी तरह बतरंगी बातें होती हैं जो इसी तरह के सतरंगी माहौल में की जाती हैं, तो फिर इस फिल्म से क्या दिक्कत है? दरअसल दिक्कत यही है कि जब यह सब हमें ऐसी हर फिल्म में दिखाया, बताया, चटाया जा चुका है तो इस बार कौन-सा नया चूरण छिड़का गया है? वैसे भी असल कहानी तो इंटरवल के बाद तब शुरू होती है जब महादेव के सामने मन्नत मांगने से लड़के की सरकारी नौकरी लग जाती है और 30 तारीख को इनकी शादी भी तय हो जाती है लेकिन 29 तारीख पर आकर वक्त थम जाता है। रोज़ सुबह वही 29 तारीख, वही हल्दी की रस्में, वही सारी हरकतें। क्यों हो रहा है ऐसा? आखिर मन्नत कहां अटकी हुई है? कैसे सुलटेगी वह मन्नत? और क्या हो पाएगी इन दो डंब लोगों की शादी? यह इस फिल्म में आगे दिखाया गया है, हल्के-फुल्के अंदाज़ में।
वैसे तो यह पूरी फिल्म ही हल्के-फुल्के अंदाज़ में लिखी गई है जिसका मकसद साफ है कि दर्शक परिवार के साथ आएं और ठीकठाक-सा टाइम पास करें। लिखने वालों ने वही आजमाया हुआ ट्रैक पकड़ा है जिसमें लड़के-लड़की के इर्दगिर्द कुछ मददगार किस्म के प्राणी रहते हैं, घर में कुछ समर्थक तो कुछ विरोधी किस्म के किरदार होते हैं, अंत में एक गंभीर किस्म का मैसेज निकलता है जो बताता है कि दिमाग से पैदल दिख रहे ये लोग असल में दिल के कितने साफ हैं। फिल्म खत्म, टाटा, बाय-बाय।
लेकिन दिक्कत इसकी इसी लिखाई के साथ है जो न सिर्फ उथली है बल्कि ऊपर से चमकीली और अंदर से खोखली है। इसके किरदार न सिर्फ दिमाग से पैदल हैं बल्कि उनके दिलों में भी मैल है। इससे भी बड़ी दिक्कत यह कि यह फिल्म इन्हीं किरदारों को ‘नायक’ के तौर पर स्थापित करने का काम करती है। लड़की का घर से भागना हो, अपनी मां का हार चुराना हो, हल्दी की रात को अपने घर की छत पर लड़के के साथ दारू पीना हो या हर छोटे-बड़े से बदतमीज़ी करना, यह फिल्म इन सारी बातों को ‘नॉर्मलाइज़’ करती है, उन्हें सही ठहराती है। लड़के को ही देखिए-निकम्मा है, नाकारा है, शक्ल-सूरत से साधारण है, विचारों का टोटा है, अक्ल का थोथा है, नैतिकता जिसे पता नहीं और अकड़ ऐसी लिए घूमता है जैसे किसी फिल्म का हीरो हो। चलिए, यह सब भी हम ‘नॉनसैंस कॉमेडी’ के नाम पर सहन कर लें, लेकिन कॉमेडी है कहां…? कुछ एक टेढ़े-बांके किरदारों के आढ़े-टेढ़े ढंग से मारे गए पंचेस ही अगर कॉमेडी हैं, तो खुदा खैर करे। खुदा से याद आया कि तिवारी-मिश्रा, काशी-महादेव वाली इस फिल्म में नैतिकता की चादर यदि किसी एक शख्स ने ओढ़ रखी है तो उसका नाम है हामिद अंसारी। उसे सरकारी नौकरी चाहिए-अपने लिए नहीं बल्कि अपने गांव का भला करने के लिए और यह नौकरी उसे लेनी भी पूरी ईमानदारी से है। वाह रे नई पीढ़ी के सलीम-जावेद…!
करण शर्मा का निर्देशन अति साधारण है। न तो वह कोई यादगार सीन दे पाए और न ही कोई दमदार बात कह पाए। राजकुमार राव को इस किस्म के किरदारों में इतनी बार देखा जा चुका है कि वह इस फिल्म में बोर करते हैं। वामिका गब्बी ऐसे रोल लेकर अपना ही नुकसान कर रही हैं, यह बात मैंने ‘बेबी जॉन’ के रिव्यू में भी लिखी थी। रघुबीर यादव, सीमा पाहवा, ज़ाकिर हुसैन, संजय मिश्रा, विनीत कुमार, अनुभा फतेहपुरिया जैसे कलाकार हमेशा की तरह सधा हुआ काम कर गए। नलनीश नील जैसे काबिल कलाकार को सीन ही नहीं मिले। सीन तो मिले लड़के के मामा बने इश्तियाक खान को और उन्होंने जम कर असर भी छोड़ा। इरशाद कामिल के गीत और तनिष्क बागची का संगीत स्तरीय रहा।
(रिव्यू-कचरे का सुल्तान ‘बेबी जॉन’)
फिल्म के शुरू में जिस उत्तर प्रदेश की सरकार का आभार प्रकट हुआ, उसने तो स्क्रिप्ट में झांका ही नहीं होगा कि यह फिल्म उनके प्रदेश में पैसे खिला कर सरकारी नौकरी देने-दिलवाने का रैकेट दिखा कर उन्हीं पर दाग लगा जाएगी। वैसे भी जिस दो घंटे की फिल्म का पहला घंटा भूमिका बांधने में और आखिरी का आधा घंटा प्रवचन देने में निकल जाए तो समझिए कि फिल्म बनाने वालों ने फिल्म नहीं बनाई है, लप्पूझन्ना बनाया है-हमारा, आपका। लप्पूझन्ना समझते हैं न…! कमअक्ल, मूर्ख, बेवकूफ, लल्लू-पंजू…!
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-1 May, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
थैंक्स…
फ़िल्म देखी…. सिर्फ देखी इसलिए कि सहकालकार ज़िंदा रहें…. उनको काम. मिलता रहे….वरना उनका वज़ूद न बचेगा…. मैंन कलाकार का क्या उनकी एक फ्लॉप या स्टारीय रहे उनको क्या…. उनका कौन स काम बंद हो रहा है….
रघुबीर साहब, ज़ाकिर खान साहब औऱ अन्य… यही हैँ जिनकी वजह से फ़िल्म टिक सी रही है वरना… और आउंधे मुँह गिरना तय था…
अभी हाल में ही परेश रावल जी ने लल्लनटॉप के इंटरव्यू में बताया था कि वह अपने बाबूराव के किरदार में नहीं फसना चाहते थे उसने निकलना चाहते थे
राजकुमार राव को भी अपने स्त्री फ्रेंचाइजी के विक्की वाले के किरदार से बाहर निकला चाहिए…
खैर फिल्म की बात करे तो यह लापतागंज यूनिवर्स का हिस्सा लगती है।.
मगर सर मैं आपसे पूर्ण रूप से सहमत हु कि….
“लड़की का घर से भागना हो, अपनी मां का हार चुराना हो, हल्दी की रात को अपने घर की छत पर लड़के के साथ दारू पीना हो या हर छोटे-बड़े से बदतमीज़ी करना, यह फिल्म इन सारी बातों को ‘नॉर्मलाइज़’ करती है, उन्हें सही ठहराती है। यह गलत है”
इसका प्रभाव बच्चों पर बहुत ज्यादा दिखता है। क्योंकि मेरे 2 दोस्तो ने ही लड़की के साथ भाग कर शादी कर ली😵💫