-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘यह अंधेर नगरी है, यहां गलत रास्ता ही मेन रोड है।’
इस फिल्म (Dilli Dark) का एक पगला किरदार दिल्ली के बारे में जब यह बात कहता है तो लगता है कि इस शहर के बारे में इससे ज़्यादा सयानी बात भला और क्या हो सकती है। दिल्ली-नक्शे पर एक शहर लेकिन इतिहास के पन्नों में एक ऐसी जगह जो जितनी बार उजड़ी, अगली बार उससे ज़्यादा शिद्दत के साथ बसी। एक ऐसी जगह जहां कभी पांडवों ने राज किया तो कभी बाहरी आक्रमणकारी जाते-जाते अपने गुलामों को गद्दी सौंप गए। वही गुलाम वंश जिसमें रज़िया जैसी सुलतान हुई और वही रज़िया जिसने अफ्रीका से आए अपने गुलाम याक़ूत से मोहब्बत की।
आज बरसों बाद एक और अफ्रीकी युवक दिल्ली में रह रहा है। माइकल ओकेके (ओके ओके नहीं ओकेके) एक आम लड़का है जिसे हिन्दी समझ में आती है और वह ‘तोड़ा-तोड़ा’ बोल भी लेता है। वह दिल्ली वाला है, दिल्ली वाला बन कर यहीं रहना भी चाहता है। दिन में एम.बी.ए. करता है, लेकिन रात में मजबूरन उसे ड्रग्स बेचनी पड़ती हैं। पंजाबी मकान मालिक की लड़की को देखता है, पड़ोसी बंगाली से दोस्ती करता है, एक धर्मगुरु मानसी उर्फ ‘मां’ के नज़दीक पहुंचता है लेकिन पाता है कि इस शहर में हर कोई बस अपने लिए जीता है।
यह फिल्म (Dilli Dark) इस मायने में अनोखी है कि यह दिल्ली शहर को एक अफ्रीकी युवक के नज़रिए से देखती और दिखाती है। वह शहर जहां के लोग हद दर्जे के मतलबी हैं लेकिन दूसरे के फटे में टांग अड़ाना अपना फर्ज़ समझते हैं, जहां हर कोई ‘तू जानता है मेरा बाप कौन है’ की अकड़ लिए घूमता है, जहां अंधेरा होते ही एक खौफ-सा तारी होने लगता है, जहां की लगभग हर नागरिक व्यवस्था गर्त में है। उसी दिल्ली के कुछ टेढ़े-बांके किरदारों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में झांकती यह फिल्म ‘दिल्ली डार्क’ (Dilli Dark) देश-विदेश के कई फिल्म समारोहों में तालियां बटोर कर अब रिलीज़ हुई है।
फिल्म ‘दिल्ली डार्क’ (Dilli Dark) की शुरुआत मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद के लिखे इस शेर से होती है-‘चेहरे पे सारे शहर के गर्द-ए-मलाल है, जो दिल का हाल है वही दिल्ली का हाल है।’ बस, यहीं से फिल्म का मूड सैट हो जाता है। यह फिल्म इस शहर में घट चुके वाकयों से कहानी के सिरे बुनते हुए आगे बढ़ती है। जहां अफ्रीकी युवक के फ्रिज में रखा मटन किसी को इंसान का गोश्त लगता है तो वहीं उसके देश नाइजीरिया का नाम सुनते ही उसे अपराधी मान लिया जाता है। जहां गालियां देना बातचीत का हिस्सा है। जहां धर्म के नाम पर लोग दुकानें खोले बैठे हैं और मोटी जेब-कम अक्ल वाले लोग इन दुकानों में चढ़ावा भी चढ़ा रहे हैं। ऐसी ही और भी ढेरों बातें हैं इस फिल्म में। असल में लेखक-निर्देशक दिवाकर दास रॉय ने इस फिल्म में एक साथ इतना कुछ कहने और दिखाने की कोशिश की है कि उनकी कसरतों पर हैरानी होती है। एक बड़ी बात यह भी है कि सब कॉमिक फ्लेवर के साथ कहा गया है।
माइकल बने सैम्युअल ने सचमुच कमाल का काम किया है। गीतिका विद्या ओहल्याण ने ‘मां’ मानसी के किरदार को गहराई से निभाया है। शांतनु अनम, स्तुति घोष, सलीम सिद्दिकी, डिंपी मिश्रा, जसपाल शर्मा, विवेक सिन्हा जैसे अन्य सभी कलाकार भी अपने-अपने पात्रों को बखूबी निभा गए हैं। गीत, संगीत, कैमरा, लोकेशन मिल कर इस फिल्म (Dilli Dark) को विश्वसनीय लुक देते हैं।
यह फिल्म (Dilli Dark) एक अलग मिज़ाज की है, अलग अंदाज़ में बनाई गई है, सो उन्हीं लोगों को भाएगी जिन्हें कुछ बहुत ही हटके वाला सिनेमा पसंद आता है। फिल्म में काफी सारी अंग्रेज़ी है, कुछ गालियां व अश्लील संदर्भ भी हैं जिससे यह हर किसी के मतलब की बन भी नहीं पाई है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-30 May, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
Deepak ji, मैंने पहली बार आपके film critic को पढ़ा । आपने बेबाक होकर अपने विचारों को रखा है ।
धन्यवाद… आभार…
बहुत अच्छा लिखा है सर आपने
खास तौर पर दिल्ली वालो की व्याख्या पढ़कर मज़ा आ गया
तारीफ़ रिव्यु कि औऱ हौसला फ़िल्म बनाने वालों का… जिसने इस फ़िल्म में दिल्ली कि अलग औऱ एक तरह से हकीकत कि तश्वीर दिखाई है…. लेकिन… सभी अफ़्रीकी ऐसे ही होते होंगे ये दिमाग़ में रखना गलत होगा….. जैसे पानवह उंगलियां बराबर नहीं हो सकती तो हर इंसान क़े कर्म भी बराबर नहीं हो सकते चाहे वो किसी भी देश का नागरिक क्यूंकि न हो…