-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
इस फिल्म का नाम, पोस्टर और ट्रेलर देखिए तो लगता है कि यह ऐसे गरीब बच्चों की कहानी होगी जो बैडमिंटन खेलना चाहते हैं लेकिन उनके पास न जगह है, न संसाधन। किसी तरह से ये लोग सब जुगाड़ते हैं, मुश्किलों से लड़ते हैं और एक दिन अपने से बलशाली खिलाड़ियों को हरा कर जीत हासिल करते हैं।
लेकिन यह फिल्म देखिए तो ऐसा कुछ नहीं मिलता। बिन बाप के दो बच्चे हैं। ‘चिड़िया’ से खेलना चाहते हैं। किसी तरह से जगह, सामान वगैरह का इंतज़ाम करते हैं लेकिन मां का हाथ बंटाने के लिए उन्हें काम पर जाना पड़ता है। बैडमिंटन खेलने का उनका सपना अंत तक सपना ही बना रहता है। और फिर एक दिन…!
यह कहानी असल में उन लाखों-करोड़ों लोगों के जीवन में झांकती है जो अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए पूरी ज़िंदगी निकाल देते है। इस दौरान कभी उनके छोटे-छोटे सपने, छोटी-छोटी ख्वाहिशें सिर उठाती भी हैं तो अक्सर उन्हें दबा दिया जाता है। इस फिल्म को देखिए तो अफसोस होता है कि जिस उम्र में बच्चे पढ़ते हैं, खेलते हैं उस उम्र में कुछ बच्चों को मज़दूरी क्यों करनी पड़ती है? इन बच्चों की बाल-सुलभ हरकतें, जिज्ञासाएं, तमन्नाएं हैं लेकिन मन में टीस उठती है उनकी गरीबी, मजबूरी, बेबसी को देख कर। यह फिल्म हमें ऐसे किरदारों के करीब ले जाकर यह भी दिखाती है कि सपने देखने का हक सिर्फ भरी जेब वालों को ही नहीं होता।
मेहरान अमरोही और अमिताभ वर्मा की लिखावट हमें जिस माहौल में ले जाती है, वह बेगाना नहीं लगता। लेकिन इस लेखन में नीरसता का भाव हावी है। कुछ जगह सीन लंबे खिंचे हुए लगते हैं तो कुछ जगह गैरज़रूरी भी। फिर पूरी फिल्म इस इंतज़ार में भी बीत जाती है कि अब कुछ नया होगा, कुछ चमकदार होगा, कुछ चमत्कार होगा। इसके चलते यह फिल्म दर्शक मन की तृष्णा पूरी नहीं कर पाती। हां, मेहरान अमरोही का निर्देशन सधा हुआ है। लेकिन यह जान कर हैरानी होती है कि यह फिल्म 2015 से बन कर पड़ी थी और अब कहीं जाकर इसे पर्दा नसीब हुआ है। अफसोस होता है अपने सिनेमा के कर्णधारों पर।
सभी कलाकारों का अभिनय बेहद प्रभावी है। स्वर कांबले, आयुष पाठक, हेतल गाडा, डी. संतोष, विनय पाठक, श्रेयस तलपड़े, बृजेंद्र काला आदि सभी बेहद विश्वसनीय लगे हैं। अमृता सुभाष और इनामुल हक़ को देख कर अभिनय का सबक सीखा जा सकता है। गीत-संगीत उम्दा है। लोकेशन बढ़िया।
इस फिल्म में सपनों की उड़ानें नहीं हैं, सपनों के घोंसले हैं जिनमें ख्वाहिशों की नन्हीं-सी चिड़िया अपना घर बनाना चाहती है। ऐसी फिल्मों में मसालेदार मनोरंजन नहीं होता। ये फिल्में टिकट-खिड़की पर शोर नहीं मचा पातीं। लेकिन ऐसी फिल्में दिलों को छूती हैं, यही काफी है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-30 May, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
Will love to watch such movies with kids this summer.
घर के सभी सदस्यों के साथ देखने के लिए उम्दा फिल्म है
क्या पता देखते देखते gen Z को भी सबक मिल जाए
वाकई दिल कों छु गई ये फ़िल्म…. जबरदस्त